________________
अध्याय २३ उपाकर्म या उपाकरण एवं उत्सर्जन या उत्सर्ग
उपाकर्म या उपाकरण का तात्पर्य है 'उद्घाटन करना या प्रारम्भ करना' (मिताक्षरा, याज्ञवल्क्य १३१४२) तथा उत्सर्जन या उत्सर्ग (आश्वलायनगृह्यसूत्र ३।५।१३) का अर्थ है 'वर्ष में कुछ काल के लिए वेदाध्ययन से विराम।' किन्तु आपस्तम्बगृह्यसूत्र (८1१) एवं आपस्तम्बधर्म सूत्र (१।३।११।२) ने 'उत्सर्जन' के स्थान पर 'समापन' का प्रयोग किया है। अति प्राचीन काल में ये दोनों कृत्य विभिन्न मासों एवं विभिन्न तिथियों में सम्पादित होते थे, किन्तु वेदाध्ययन के ह्रास के कारण मध्यकाल में एक ही दिन सम्पादित होने लगे। बहुत-से सूत्रों में उपाकर्म को अध्यायोपाकरण (आश्वलायनगृह्यसूत्र ३५१) या अध्यायोपाकर्म (पारस्करगृह्यसूत्र २।१०, वसिष्ठधर्मसूत्र १३।१) कहा गया है । अतः यहाँ पर 'अध्याय' का अर्थ है 'वेदाध्ययन' या केवल 'वेद', क्योंकि इसमें वेद का अध्ययन (विशिष्ट रूप से ) होता है। अतः वह कृत्य जो वर्ष में वेदाध्ययन के आरम्म-काल में होता है, उपाकर्म कहलाता है।' गौतम (१६।१) में उपाकर्म के कृत्य को 'वार्षिक' सम्भवतः इसीलिए कहा गया है कि यह या तो वर्षा (वर्षाकाल) में आरम्भ होता मा या यह वर्ष में एक बार होता था। भाश्वलायनगृह्यसूत्र (३।५।१९) ने भी इस कृत्य को वार्षिक कहा है।
उपाकर्म काल एवं तिथि-सूत्रों में उपाकर्म का काल कई ढंगों से व्यक्त किया गया है। आश्वलायनगृह्यसूत्र (३१५। २-३) का कहना है--"जब ओषधियाँ (वनस्पतियां) उपज जाती हैं, श्रावण मास के श्रवण एवं चन्द्र के मिलन में (अर्थात् पूर्णमासी को) या हस्त नक्षत्र में श्रावण की पंचमी को (उपाकर्म होता है)।"२ पारस्करगृ० (२०१०) के अनुसार ओषधियों के निकल आने पर श्रावण की पूर्णमासी को या श्रावण की पंचमी को हस्त नक्षत्र में उपाकर्म होना चाहिए। गौतम (१६।१) एवं वसिष्ठधर्मसूत्र (१३॥१) के अनुसार उपाकर्म श्रावण या भाद्रपद की पूर्णमासी को सम्पादित होना चाहिए। खादिरगृ० (३।२।१४-१५) एवं गोभिल (३।३।१ एवं १३) के अनुसार यह भाद्रपद की
१. 'अध्ययनमध्यायस्तस्योपाकरणं प्रारम्भो येन कर्मणा तदध्यायोपाकरणम्'-नारायण (आश्वलायनगृह्यसूत्र ३।५।१); 'अधीयन्ते इत्यध्याया वेदास्तेषानुपाकर्म उपक्रमनोषधीनां प्रादुर्भावे'-मिताक्षरा (याज्ञ० १३१४२) ।
२. ओषधीनां प्रादुर्भाव श्रवणेन श्रावणस्य । पञ्चम्या हस्तेन वा। आश्व० गृ० ३।५।१-२; ओषधानां प्रादुर्भावे श्रवणेन श्रावण्यां पौर्णमास्यां श्रावणस्य पञ्चमी हस्तेन वा। पारस्करगृ० २।१०; प्रौष्ठपदी हस्ते पाध्यायानृपाकुर्युः। श्रावणीमित्येके। खाविरग० ३।२।१४-१५; प्रौष्ठपदी हस्तेनोपाकरणम्।...श्रदणामेक उपाकृत्यतमा सावित्रात्कालं कांक्षन्ते। गोभिलगृ० ३।३।१ एवं १३; अथातः स्वाध्यायोपाकर्म श्रावण्यां पौर्णमास्यां प्रौष्ठपद्यां वा। वसिष्ठ १३।१; हुतानुकृतिरुपाकर्म। श्रावण्यां पौर्णमास्यां कियेतापि वा आषायाम्। बौ० गृ० ३।१।१-२; श्रावणपक्षे ओषधीषु जातासु हस्तेन पौर्णमास्यां वाध्यायोपाकर्म। हिरण्यकेशिगृ० २।१८।२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org