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धर्मशास्त्र का इतिहास
विष्णुधर्मसूत्र ( ५१।३८-४१), याज्ञवल्क्य (१।१७० ) के अनुसार जो सन्धिनी' गाय हो, जिसका बछड़ा मर गया हो, जिसे जुड़वाँ बछड़े उत्पन्न हो गये हों, बछड़ा देने पर अभी जिसको दस दिन पूरे न हुए हों, जिसके स्तन से अपनेआप दूध निकलता हो, उसका दूध नहीं पीना चाहिए। बछड़ा देने के दस दिन तक बकरी एवं भैंस का दूध भी नहीं पीना चाहिए। भेड़ों, ऊँटनियों तथा एक खुर वाले पशुओं का दूध सर्वथा वर्जित माना गया है। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य (१।१७० ) के अनुसार वर्जित दूध का दही भी वर्जित है, किन्तु विश्वरूप के कथनानुसार वर्जित दूध का दही तथा उसके अन्य पदार्थ वर्जित नहीं हैं। अपवित्र भोजन करने वाली गाय का दूध भी वर्जित माना गया है (विष्णुधर्मपूत्र ५१।४१ एवं अत्रि ३०१ ) । वायुपुराण में भैंस का दूध भी वर्जित माना गया है।" बोधायनधर्मसूत्र (१।५।१५९ - १६०) ने गाय के दूध को छोड़कर अन्य वर्जित दूध पीने पर प्राजापत्य प्रायश्चित्त करने की तथा वर्जित गाय का दूध पीने पर तीन दिनों के उपवास की व्यवस्था दी है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (पद्य) में ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य लोगों के लिए कपिला गाय का दूत्र वर्जित माना गया है, किन्तु भविष्यपुराण में देव कृत्यों से बच रहे कपिला गाय के दूध को ही ब्राह्मणों के प्रयोग के लिए उचित ठहराया गया है। ब्रह्मपुराण के अनुसार रात्रि में यात्रा करते समय भी दही का सेवन नहीं करना चाहिए, किन्तु रात्रि के समय मधुपर्क में इसे डाला जा सकता है। दिन में भुने अन्न, रात्रि में दही एवं जी तथा सभी कालों में कोविदार एवं कपित्थ ( वृक्ष या फल) के प्रयोग से दुर्भाग्य का आगमन होता है।
शाक-भाजी, तरकारी का प्रयोग—अति प्राचीन काल से कुछ शाक- माजियां वजित ठहरायी गयी हैं। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।५।१७।२५-२७ ) के मत से वे सभी शाक, जिनसे मदिरा निकाली जाती है, कलञ्ज ( लाल लहसुन ), पलाण्डु (प्याज), परारिक ( काला लहसुन) तथा वे शाक- माजियां जिन्हें भद्र लोग नहीं खाते, खाने के प्रयोग में नहीं लायी जानी चाहिए। इसी प्रकार 'क्याकु' (कवक, कुकुरमुत्ता) भी नहीं खाना चाहिए। गौतम ( १७/३२-३३) ने पेड़ों की कोमल पत्तियों, क्याकु, लशुन ( लहसुन ), वृक्षों की राल तथा वृक्षों पर क्षत कर देने पर छाल से जो लाल स्राव निकलता है, इन सब को वर्जित माना है । वसिष्ठषर्मसूत्र ( १४।३३ ) ने लशुन, पलाण्डु, गृञ्जन (शिखामूल या शलजम ), श्लेष्मातक, वृक्ष-स्राव एवं छाल से निकले लाल झाग को वर्जित माना है । मनु ( ५1५-६ ) ने लशुन, पलाण्डु, गृञ्जन, कवक ( कुकुरमुत्ता), अपवित्र मिट्टी से उपजी हुई सभी प्रकार की शाक-माजियों, लाल वृक्ष-वाव एवं लाल वृक्ष झाग तथा शेलु फलों को वर्जित माना है। याज्ञवल्क्य (१।१७१) ने शित्रु जोड़ दिया है और वजित पदार्थों के प्रयोग पर चान्द्रायण व्रत की व्यवस्था दी है। प्राचीन काल में प्रयुक्त शाक-भाजियों के आधुनिक पर्याय नामों की जानकारी बहुत कठिन है। गृहस्थरत्नाकर ( पृ० ३५६ ) में उद्धृत स्मृतिमञ्जरी के अनुसार पलाण्डु के दस प्रकार हैं, जिनमें गृञ्जन ( शलजम) भी एक ।" इसी प्रकार अपरार्क ( पृ० २४९), गृहस्थरत्नाकर
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९. 'सन्धिनी' के तीन अर्थ बताये गये हैं- (१) गम गाय अर्थात् जो गर्भवती होना चाहती है, (२) वह गाय जो दिन में केवल एक बार दूध देती है तथा (३) वह गाय जो दूसरे बछड़े के लाने पर दूध देती है, अर्थात् जिसका बछड़ा मर गया हो और दूसरे बछड़े से अभिसंधानित हो चुकी हो।
१०. अजा गावो महिष्यश्च अमेष्यं भक्षयन्ति याः । दुग्धं हव्ये च कव्ये च गोमयं न विलेपयेत् ॥ अत्रि ३०१ । आविकं मार्गमौष्ट्रं च सर्वमेकशकं च यत् । माहिषं चामरं चैव पयो वज्यं विजानता ।। वायुपुराण ७८ । १७ ।
११. रसोनो दीर्घपत्रश्च पिच्छगन्धी महौषधम् । हिरण्यश्व पलाण्डुश्च नवतक्कः परारिका । गुञ्जनं यवनेष्टं च पलाण्डोवंश जातयः ॥ इति स्मृतिमञ्जरीकारलिखितवैद्यकश्लोकात् । गृहस्थरत्नाकर, पृ० ३५६ एवं आह्निकप्रकाश ( पृ० ५१४) ।
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