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________________ ४१८ धर्मशास्त्र का इतिहास त्रिसुपर्ण पढ़े रहते हैं, जो पंचाग्नि रखते हैं, जो वेदाध्ययन के उपरान्त समावर्तन-स्नान किये रहते हैं अर्थात् जो स्नातक होते हैं, जो अपने वेद के ब्राह्मण एवं मन्त्र जानते हैं, जो धर्मशास्त्रज्ञ होते हैं और होते हैं ब्राह्म-विवाह वाली संस्कृत माता की सन्तान। आपस्तम्बधर्मसूत्र एक लक्षण और जोडता है-"जो चारों मेध (अश्वमेघ, सर्वमेध, पुरुषमेध एवं पितमेध) सम्पादित कर च पादित कर चुके हैं।" मनु ने वेदज्ञ, वेदव्याख्याता, ब्रह्मचारी, दाता (सहस्र गौओं का दान करनेवाले) एवं सौ वर्ष की अवस्था वाले व्यक्ति को भी पंक्तिपावन कहा है। शंख ने योगियों, उनको जो सोने और मिट्टी के टुकड़े के बराबर समझते हैं, और ध्यान में मग्न रहने वाले यतियों को पंक्तिपावन कहा है। अनशासनपर्व (९०।३४) ने भाष्य, व्याकरण एवं पुराण पढ़नेवाले को भी पंक्तिपावन कहा है। कोढ़ी, खल्वाट, व्यभिचारा, आयुधजीवी के पुत्र (आपस्तम्बधर्मसूत्र २।७।१७।२१), ब्राह्मणों के लिए अयोग्य कार्य करने वाले, धूर्त, कम या अधिक अंग वाले, जिसने वेद, पवित्र अग्नियों, माता-पिता, गुरुओं का त्याग कर दिया हो तथा वे लोग जो शूद्रों के भोजन पर जीते हों, पंक्तिदूषक कहे जाते हैं (देखिए शंख १४।२-४ एवं अपरार्क, पृ० ४५३-४५५)। एक पंक्ति में बैठे हुए लोगों को एक ही प्रकार के व्यञ्जन परोसे जाने चाहिए, किसी प्रकार का विभेद करने से ब्रह्महत्या का दोष लगता है (व्यासस्मृति ४।६३) । खाते समय यदि कोई ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण को छू ले तो भोजन करना छोड़ देना चाहिए या भोजनोपरान्त गायत्री का १०८ बार जप कर लेना चाहिए। आजकल ऐसा हो जाने पर जल से आँखों का स्पर्श कर लिया जाता है। यदि भोजन करनेवाला परोसने वाले को छू ले तो परोसने वाले को चाहिए कि वह भोजन को पृथिवी पर रखकर आचमन करे, और उस पर जल छिड़कने के उपरान्त उसे पुनः परोसे। बायें हाथ से खाना एवं पीना वजित है। खाना खाते समय गिलास से या पानी पीने के पात्र से पानी पीना चाहिए, दोनों हाथों को मिलाकर पानी नहीं पीना चाहिए (याज्ञवल्क्य १११३८)। किन्तु जब खाना न खाया जा रहा हो तो दाहिने हाथ से जल ग्रहण किया जा सकता है। भोजनोपरान्त 'आपोशन' ('अमृतापिधानमसि' का उच्चारण) करना चाहिए और थोड़ा जल ग्रहण करना चाहिए; तब हाथ धोना, दो बार आचमन करना, दाँतों के बीच के भोजन-कणों को हटाने के लिए हलके ढंग से दांतों को घोना तथा अन्त में ताम्बूल ग्रहण करना चाहिए। आश्वलायन ने भोजनोपरान्त मख धोने के लिए १६ कूल्ले (गण्डष) करने की बात चलायी है। यति, ब्रह्मचारी तथा विधवा को पान नहीं खाना चाहिए। भोज्यान्न में से सभी कुछ नहीं खा डालना चाहिए, प्रत्युत भोजन-पात्र में दही, मधु, घृत, दूध एवं सक्तु (सत्तू) के अतिरिक्त अन्य व्यञ्जनों का कुछ अंश छोड़ देना चाहिए। जो बच रहता है वह पत्नी या नौकर को दे दिया जाता है (पराशरमाधवीय १११, पृ० ४२२)। किसी को दूसरे का जूठा न तो खाना चाहिए और न देना चाहिए। हाँ, बच्चा अपने माता-पिता या गुरु का जूठा खा सकता है (स्मृतिमुक्ताफल, आह्निक, पृ० ४३१)। अपने आश्रित शूद्र के अतिरिक्त किसी अन्य शूद्र को अपना जूठा नहीं देना चाहिए (मनु ४१८०, आपस्तम्बधर्मसूत्र १११।३१।२५२६)। जब तक भोजन-पात्र हटा नहीं लिया जाता, स्थल को गोबर से लीप नहीं दिया जाता और जब तक स्वयं खानेवाला दूर नहीं हट जाता तब तक वह आचमन कर लेने पर भी अपवित्र ही कहा जाता है। देखिए आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।२।४।२४) भी। ब्राह्मण का भोजन-पात्र ब्राह्मण ही उठा सकता है (कोई अन्य नहीं), श्राद्ध करने वाला पुत्र या शिष्य श्राद्ध के भोजन-पात्र को उठा सकता है, किन्तु वह जिसका उपनयन न हुआ हो, पत्नी तथा कोई अन्य व्यक्ति नहीं उठा सकता (लघु-आश्वलायन १३१६५-१६६)। ग्रहण या किसी विषम स्थिति में भोजन-त्याग सूर्य एवं चन्द्र के ग्रहणों के समय भोजन न करने के विषय में बहुत-से नियम बने हैं। स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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