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________________ भोजन-विधि ४१७ २।७११० ) | खाते समय आसन का परिवर्तन नहीं होना चाहिए और न पैरों में जूते, चप्पल आदि होने चाहिए । उस समय चमड़े का स्पर्श वर्जित है । मनु ( ४१४१३), विष्णुधर्मसूत्र ( ६८।४६ ) एवं वसिष्ठधर्मसूत्र ( १२।३१ ) के मत से पत्नी के साथ बैठकर नहीं खाना चाहिए। यात्रा में ब्राह्मण अपनी ब्राह्मणी के साथ एक ही थाली में खा सकता है (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० २२७ ) । स्मृत्यर्थसार ( पृ० ६९ ) एवं मिताक्षरा ( याज्ञवल्क्य १ । १३१ ) के मत से विवाह के समय पति-पत्नी का एक ही थाली में साथ-साथ खाना मना नहीं है । भोजन की मात्रा के विषय में कई नियम बने हैं। आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २/४/९/१३), वसिष्ठधर्मसूत्र (६।२०२१) एवं बौधायनघर्मसूत्र (२।७।३१-३२ ) के अनुसार संन्यासी को ८ कौर, वानप्रस्थ को १६, गृहस्थ को ३२ एवं ब्रह्मचारी ( वेदपाठी ) को जितने चाहे उतने कौर खाने चाहिए। गृहस्थ को पर्याप्त भोजन करना चाहिए, जिससे कि वह अपना कार्य ठीक से कर सके ( आपस्तम्बधर्म सूत्र २/४/९/१२ ) । इसी प्रकार शबर (जैमिनि ५।११२० ) ने लिखा है कि आहिताग्नि गृहस्थ दिन में कई बार खा सकता है।" भोजन के समय शिष्टाचार, पंक्तिपावन एवं पंक्तिदूषक ब्राह्मण पंक्ति में प्रथम स्थान तभी ग्रहण करना चाहिए जब कि उसके लिए विशेष रूप से आग्रह किया जाय। किन्तु प्रथम आसन पर बैठ जाने पर सबसे पहले भोजन नहीं आरम्भ करना चाहिए, प्रत्युत सबके भोजन आरम्भ करने के बाद में (शंख, अपरार्क द्वारा पृ० १५० में उद्धृत) । यदि एक ही पंक्ति में कई ब्राह्मण बैठे हों और कोई व्यक्ति सबसे पहले आचमन कर ले या अपना अवशिष्ट भोजन शिष्य को दे दे या उठ पड़े तो अन्य लोगों को भी भोजन छोड़कर उठ जाना चाहिए। इस प्रकार जो व्यक्ति समय से पहले उठ जाता है, उसे ब्रह्महा (ब्राह्मण को मारने वाला) या ब्रह्मकष्टक कहा जाता है। ये नियम स्मृतिचन्द्रिका ( १, पृ० २२७ ), गृहस्थरत्नाकर ( पृ० ३३१ ) एवं स्मृतिमुक्ताफल ( आह्निक, पृ० ४२७) में उद्धृत हैं। इस प्रकार के अशिष्ट व्यवहार को रोकने के लिए कई विधियाँ काम ले लायी गयी हैं । एक पंक्ति की श्रृंखला तब टूट जाती है जब कि खाने वालों के बीच में अग्नि हो, राख हो, स्तम्भ हो, मार्ग हो, द्वार हो या पृथिवी में ढाल पड़ जाय । इसी प्रकार का व्यवधान डालकर विभिन्न जाति के लोगों को बैठाया जा सकता है। जन्म, चरित्र एवं विद्या के कारण अयोग्य व्यक्तियों की पंक्ति में नहीं बैठना चाहिए ( आपस्तम्बधर्मसूत्र १/५/१७/२) । हमने बहुत पहले देख लिया है कि कतिपय उद्योग-धंधों वाले ब्राह्मण श्राद्ध में निमन्त्रित करने योग्य नहीं होते (अध्याय २ ) । गौतम ( १५।२८-२९), बौधायनधर्मसूत्र (२२८२), आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।७।१७।२१-२२), वसिष्ठ सूत्र ( ३|१९), विष्णु ( ८३।२।२१), मनु ( ३ | १८४-८६), शंख (१४११-८), अनुशासनपर्व ( ९० । ३४), वायु (अध्याय ७९ एवं ८३ ) तथा अन्य पुराणों में ऐसे ब्राह्मणों की सूचियाँ हैं जो पंक्तिपावन एवं पंक्तिदूषक कहे जाते हैं। जो अपनी उपस्थिति से पंक्ति में बैठने वालों को पवित्र करते हैं, उन्हें पंक्तिपावन कहा जाता है, और जो पंक्ति दूषित करते हैं उन्हें पंक्तिदूषक कहा जाता है। पंक्तिपावन उन्हें कहा जाता है जो वेद के छः अंगों को जानते हैं, जो ज्येष्ठ साम पढ़े रहते हैं, जिन्होंने नाचिकेत अग्नि में होम किया है, जो तीन मधुपद जानते हैं, जो ५. ममा बेवदत्तः प्रातरपूपं भक्षयति मध्यन्दिन विविषमसमश्नाति अपरान्ह मोदकान्भक्षयतीति । एक. स्मितनीति गम्यते । शबर (जैमिनि ५।१।२० ) । ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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