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अध्याय २१
नृयज्ञ या मनुष्ययज्ञ
नृयज्ञ या मनुष्ययज्ञ का तात्पर्य है अतिथि का सत्कार या सम्मान । यही अर्थ मनु को मान्य है ( मनु ३।७० ) । ऋग्वेद के प्राचीनतम सूक्तों में अग्नि को यज्ञ करने वाले के घर का अतिथि कहा गया है (ऋग्वेद १७३ १, ५।११८९,५/४१५, ७१४२।४) । ऋग्वेद (४|४|१०) में आया है - "तुम उसके रक्षक एवं मित्र बनो, जो तुम्हें विधिवत् आतिथ्य देता है।"" 'आतिथ्य' शब्द के लिए देखिए ऋग्वेद (४।३३।७ ) एवं तैत्तिरीयसंहिता ( १।२।१०।१) । अथर्ववेद (९/६ ) में अतिथि सत्कार की प्रशस्ति गायी गयी है। तैत्तिरीयसंहिता ( ५१२/२/४ ) में लिखा है - " जब अतिथि का पदार्पण होता है, तो उसे आतिथ्य ( जिसमें घी का आधिक्य रहता है) दिया जाता है।" उसमें पुनः आया है - "जो रथ या गाड़ी में आता है वह बहुत सम्माननीय अतिथि है।" इस संहिता में एक स्थान ( ६ |२| ११२ ) पर आया है कि राजा के साथ जो आते हैं, उनका आतिथ्य होता है । और देखिए शांखायनब्राह्मण ( २/९ ), तैत्तिरीय ब्राह्मण ( 21१३), ऐतरेय ब्राह्मण ( २५/५), शतपथ ब्राह्मण (२२११४१२ ) आदि । शतपथ ब्राह्मण ( ३/४ | ११२ ) ने लिखा है कि "राजा या ब्राह्मण के अतिथि रूप में रहने पर एक बैल या बकरा पकाया गया।" ऐतरेय ब्राह्मण ( ३।४) ने मी राजा या किसी अन्य सामर्थ्यवान् के आतिथ्य में बैल या बाँझ ( बन्ध्या) गाय की बलि की बात कही है। याज्ञवल्क्य (१।१०९ ) ने लिखा है कि वेदश के आतिथ्य के लिए एक बड़ा बैल या बकरा रखा रहता था। ऐतरेय ब्राह्मण ( १|१|१ ) में आया है - "जो अच्छा है और प्रसिद्धि पा चुका है, वह ( वास्तविक ) अतिथि है, अयोग्य व्यक्ति का लोग आतिथ्य नहीं करते।" समावर्तन के समय गुरु शिष्य से कहता है - " अतिथिदेवो भव" ( अतिथिसत्कार करो), तैत्तिरीयोपनिषद् (१।११।२) । इसी उपनिषद् ( ३।१०।१ ) में आतिथ्य की भी चर्चा हुई है । कठोपनिषद् ( १/७/९) में ब्राह्मण अतिथि को अग्नि (वैश्वानर ) कहा गया है।' निरुक्त ( ४/५ ) ने ऋग्वेद (५/४/५ ) (जुष्टो दमूना अतिथिर्दुरोण) की व्याख्या में 'अतिथि' की व्युत्पत्ति की है। मनु (३।१०२), पराशर (११४२) एवं मार्कण्डेयपुराण (२९/२ - ९ ) ने भी अतिथि की व्युत्पत्ति की है। मनु एवं अन्य लोगों के मत से 'अतिथि' उसे कहा जाता है जो पूरे दिन ( तिथि) नहीं रुकता है, या अतिथि वह ब्राह्मण है जो एक रात्रि के लिए रुकता है (एकरात्रं हि निवसन् ब्राह्मणो ह्यतिथिः स्मृतः । अनित्यास्य स्थितिर्यस्मात्तस्मादतिथिरुच्यते ।। मनु ३।१०२ ) ।
१. प्रियो विशामतिथिर्मानुषीणाम् । ऋ० ५। ११९, "अग्नि सभी मानव प्राणियों का अतिथि एवं प्रिय है।" तस्य भासा भवति तस्य सखा यस्त अतिष्यमानुषग्जुजोषत् । ऋ० ४|४|१० ।
२. अत्र यद्यपि गृहागतत्रियतृप्त्यर्थं गोवधः कर्तव्य इति श्रुतते तथापि कलियुगे नायं धर्मः किन्तु युगान्तरे । आह्निकप्रकाश, पृ० ४५१ ।
३. वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो गृहान् । तस्येतां शान्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोवकम् ॥ कठोपनिषद् ११७; आप० ब० २।३।६।३ । वसिष्ठ (११११३) ने प्रथम भाग उद्धृत किया है।
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