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________________ अध्याय २० वैश्वदेव वश्वदेव का अर्थ है देवताओं को पक्वान्न देना। दक्ष (२०५६) का कहना है कि दिन के पांचवें भाग में गृहस्थ को अपनी सामर्थ्य के अनुसार देवताओं, पितरों, मनुष्यों, यहाँ तक कि कीड़ों-मकोड़ों को भोजन देना चाहिए। शातातप (मनु ५१७ की व्याख्या में मेधातिथि द्वारा एवं अपरार्क पृ० १४२ द्वारा उद्धृत) के मत से वैश्वदेव बलि, यदि सुरक्षित हो तो गृह्याग्नि में, नहीं तो लौकिक अग्नि (साधारण अग्नि) में देनी चाहिए। यदि अग्नि न हो तो इसे जल में या पृथिवी पर छोड़ देना चाहिए। यही बात लघु-व्यास (२०५२) में भी पायी जाती है। कुछ मध्यकालिक ग्रन्थों, यथा स्मृत्यर्थसार, पराशरमाधवीय (१११, पृ० ३८९) आदि के अनुासर वैश्वदव का तात्पर्य है प्रति दिन के लिए तीन यज्ञ, अर्थात् देवयज्ञ, भूतयज्ञ एवं पितृयज्ञ। इसे वैश्वदेव इसलिए कहा गया है कि इस कृत्य में सभी देवताओं को आहुतियां दी जाती हैं, या इस कृत्य में सभी देवताओं के लिए भोजन पकाया जाता है।' शांखायनगृह्यसूत्र (२०१४) ने वैश्वदेव की चर्चा की है, किन्तु गोभिलगृ० (१।४।१-१५), खादिरगृ० (११५।२२३५) ने केवल बलिहरण का उल्लेख किया है। सम्भवतः आश्वलायनगृह्य० ने भी सांकेतिक ढंग से इसकी चर्चा की है। पाणिनि (६।२।३९) ने क्षुल्लक-वैश्वदेव का सामासिक प्रयोग किया है। वैखानस (६।१७) ने स्पष्ट लिखा है कि देवयज्ञ देवताओं का वह यज्ञ है जिसमें सभी देवताओं को पक्वान्न दिया जाता है। गौतम (५१९) के अनुसार वैश्वदेव के देवता हैं अग्नि, धन्वन्तरि, विश्वेदेव, प्रजापति एवं स्विष्टकृत् (अग्नि) । मनु (३३८४-८६) के अनुसार देवता हैं अग्नि, सोम, अग्नीषोम, विश्वेदेव, धन्वन्तरि, कुह, अनुमति, प्रजापति, द्यावापृथिवी, (अग्नि) स्विष्टकृत्। शांखायनगृ० (२।१४।४) ने १० देवों के नाम दिये हैं, किन्तु उसकी सूची तथा मनु की सूची में कुछ अन्तर है। पारस्करगृ० (२।९) के अनुसार वैश्वदेव-देवता ये हैं--ब्रह्मा, प्रजापति, गृह्या, कश्यप, अनुमति। विष्णुधर्मसूत्र (६७।१।३) के मत से वैश्वदेव के देवता हैं वासुदेव, संकर्षण, अनिरुद्ध, पुरुष, सत्य, अच्युत, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण, इन्द्र, इन्द्राग्नि, विश्वे देव, प्रजापति, अनुमति, धन्वन्तरि, वास्तोष्पति, (अग्नि) स्विष्टकृत् । इसी प्रकार अन्य गृह्यसूत्रों ने अपनी-अपनी सूचियाँ उपस्थित की हैं। इसी विभिन्नता के कारण मदनपारिजात (पृ० ३१७) ने लिखा है कि वैश्वदेव-देवता दो प्रकार के हैं-(१) एक तो वे जो सबके लिए एक-से हैं और जिनके नाम मनुस्मृति आदि में हैं, और (२) दूसरे वे जो अपने-अपने गृह्यसूत्रों में पाये जाते हैं। यही बात स्मृतिचन्द्रिका (१, १० २१२) ने भी कही है। १. एते देवयज्ञभूतयज्ञपितृयज्ञा वैश्वदेव उच्यते। स्मृत्यर्थसार, पृ० ४७; त एते देवयमभूतयज्ञपितृयज्ञास्त्रयोपि वैश्वदेवशन्देनोच्यन्ते। यत्र विश्वे देवा इज्यन्ते तवश्वदेषिकं कर्म। देवयों च एतनाम मुख्यम्। पितृयज्ञे छबिन्यायेन। पराशरमाधवीय (१११, पृ० ३८९) । २. पक्वेनान्नेन वैश्वदेवेन देवेम्यो होमो देवयज्ञः। वैखानसस्मार्त (६।१७)। ३. वैश्वदेवं प्रकुर्वीत स्वशालाविहितं यया। धन (स्तृतिवन्द्रिका, पृ० २१२ में उदन)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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