SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षोडश उपचार ३९९ 'युञ्जते मनः' नामक अनुवाक (ऋग्वेद ५।८१) के साथ विष्णु को आमन्त्रित कर घुटने, हाथ एवं सिर टेककर विष्णु की पूजा करनी चाहिए। ऋग्वेद के तीन मन्त्रों (१०।९।१-३) को कहकर अj (हाथ धोने के लिए सम्मान सहित जल देने) की घोषणा करनी चाहिए। इसके उपरान्त चार मन्त्रों के साथ (तैत्तिरीय संहिता ५।६।१।१-२) पाद्य (पैर धोने के लिए जल) देना चाहिए (अथर्ववेद १।६।४); और फिर आचमनीय कराना चाहिए। तब स्नान के लिए जल देना चाहिए। इसके उपरान्त “रथों, कुल्हाड़ियों, बैलों की शक्ति” मंत्र के साथ लेप एवं आभूषण देने चाहिए; ऋग्वेद (३।८।४) के साथ वस्त्र देना चाहिए; तब पुष्प, धूप, दीप, मधुपर्क देना चाहिए; तब भोज्य पदार्थ, चामर, दर्पण, छत्र, रय, आसन देते समय गायत्री मन्त्र कहना चाहिए। प्रत्येक कार्य के साथ वैदिक मन्त्र कहने का विधान है।" यहाँ सब विस्तार से नहीं दिया जा रहा है। इस प्रकार पूजा के उपरान्त पुरुषसूक्त का पाठ करना चाहिए। तब कल्याणार्थी को धूत को आहुतियां देनी चाहिए। बौधायनगृह्यपरिशेषसूत्र (२०१४) में विष्णु-पूजा का विस्तृत वर्णन है। इसी प्रकार इस परिशेषसूत्र (२०१७) में महादेव (शिव) की पूजा का भी विधान पाया जाता है। विष्णु एवं शिव की पूजा-विधि में कोई विशेष अन्तर नहीं है, हाँ शिव-पूजा में शिव के कई नाम, यथा--महादेव, भव, रुद्र एवं न्यम्बक आये हैं, कहीं-कहीं कुछ मन्त्रों में भी अन्तर है । जब स्थापित मूर्ति की पूजा होती है तो आवाहन और विसर्जन की विधि नहीं की जाती। पूजाप्रकाश (पृ० ९७-१४९) एवं अन्य निबन्धों में शौनक, गृह्यपरिशिष्ट, ऋग्विधान, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, भागवतपुराण, नरसिंहपुराण के अनुसार देवपूजा की विधि दी हुई है, जिसे हम स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं दे रहे हैं। उपर्युक्त विवेचन से व्यक्त हुआ होगा कि देवपूजा में कई उपचार पाये जाते हैं, जो सामान्यतः १६ कहे जाते हैं, यथा-आवाहन, आसन, पाद्य, अध्य, आचमनीय, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, अनलेपन या गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य (या उपहार), नमस्कार, प्रदक्षिणा एवं विसर्जन या उद्वासन । विभिन्न ग्रन्थों में कुछ अन्तर भी है। कुछ ग्रन्थों में यज्ञोपवीत के उपरान्त भूषण, प्रदक्षिणा या नैवेद्य के उपरान्त ताम्बूल (या मुखवास) भी देने की व्यवस्था है (वृद्धहारीत ६।३१-३२ एवं पूजाप्रकाश, पृ० ९८) । अतः इस प्रकार उपचार १८ हो गये।" कुछ ने 'आवाहन' छोड़कर 'आसन' के उपरान्त स्वागत', 'आचमनीय' के उपरान्त 'मधुपर्क' जोड़ दिया है। इसी प्रकार कुछ लोगों ने 'स्तोत्र' (स्तुति) एवं 'प्रणाम' को उपचार से पृथक् माना है, और कुछ लोगों ने इन दोनों को एक ही तथा प्रदक्षिणा को विसर्जन का अंग माना है (पूजाप्रकाश, पृ० ९८)। यदि किसी के पास वस्त्र एवं अलंकार न हों तो वह १६ में १० उपचार ही कर सकता है (केवल पाद्य से नैवेद्य तक), यदि ये दस भी न हो सकें तो केवल पांच (पञ्चोपचार-पूजा) अर्थात् गन्ध से नवेद्य तक करे। किन्तु यदि पास में कुछ भी न हो तो पुष्य से ही सोलहों उपचार सम्पादित हो सकते हैं। जब मूर्ति अचल रहती है तो आवाहन एवं विसर्जन की बात नहीं उठती और उपचार केवल १४ ही रह जाते हैं, किन्तु यदि सोलह पूरे करने हों तो उनके स्थान पर मन्त्र के साथ पुष्पों का व्यवहार हो सकता है। जो लोग पुरुषसूक्त कह सकें, उन्हें प्रत्येक उपचार १८. सोलह उपचारों के लिए देखिए नरसिंहपुराण ६२।९-१३ (अपरार्क, पृ० १४०-१४१ में उड़त); ऋग्विधान (३।३१।६।१०); स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० १९९); पराशरमाधवीय १११, पृ० ३६७; नित्याचारपद्धति (विद्याकर लिखित, पृ० ५३६-३७); संस्काररत्नमाला (पृ. २७); आचाररत्न (पृ० ७१)। १९. देखिए, नित्याचारपद्धति, पृ० ५४९। जयवर्मा द्वितीय (सं० १३१७--१२५०-५१ ई०) के मान्धाता लेख में पंचोपचार पूजा का उल्लेख है (एपि4फिया इण्डिका, जिल्द ९, पृ० ११७, ११९)। प्रतिष्ठितप्रतिमायामावाहनविसर्जनयोरभावेन चतुर्दशोपचारैव पूजा। अथवावाहनविसर्जनयोः स्थाने मन्त्रपुष्पाञ्जलिदानम् । नूतनप्रतिमायां तु षोडशोपचारव पूजा। संस्काररत्नमाला, पृ० २७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy