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धर्मशास्त्र का इतिहास
(४) वाच्य (वाणी का), (५) स्वाध (जिह्वा का) । गौतम (८।२४) की व्याख्या में हरदत्त ने शौच के चार प्रकार बताये हैं--(१) द्रव्य (किसी द्वारा प्रयुक्त पात्र एवं पदार्थ का), (२) मानस, (३) वाच्य एवं (४) शारीर । वृद्धगौतम ने पाँच प्रकार के शौच बताये हैं-(१) मानस, (२) कर्म का, (३) कुल का, (४) शरीर का एवं (५) वाणी का। मनु (५।१३५), विष्णुधर्मसूत्र (२२।८१) एवं अत्रि (३१) के अनुसार बारह प्रकार के मल होते हैं-(१) चर्बी, (२) वीर्य, (३) रक्त, (४) मज्जा, (५) मूत्र,.(६) विष्ठा, (७) नासामल, (८) खूट, (९) खखार (कफ), (१०) आंसू, (११) नेत्रमल एवं (१२) पसीना। इनमें प्रथम छः पानी एवं मिट्टी से किन्तु अन्तिम छ: केवल पानी से स्वच्छ हो जाते हैं।
आचमन शौच कृत्य समाप्त करने के उपरान्त मुख को १२ कुल्लों (गण्डूषों) से स्वच्छ करना चाहिए (स्मृतिमुक्ताफल, आह्निक, पृ०.२२०)। इसके उपरान्त आचमन करना चाहिए। उपनयन के अध्याय में आचमन के विषय में बहुतकुछ कहा जा चुका है। शि खा बाँधकर एवं पीछे से परिधान को मोड़कर आचमन करना चाहिए, पानी को करतल में इतनी मात्रा में डालना चाहिए कि माष (उर्द) का बीज डूब सके; अँगूठे एवं कानी अँगुली को छोड़कर अन्य तीनों अंगुलियों को मिलाकर ब्राह्म तीर्य (हथेली के ऊपरी भाग) से जल पीना चाहिए। 'तीर्थ' शब्द का अर्थ है दाहिने हाथ का वह भाग जिसके द्वारा धार्मिक कृत्यों में जल ग्रहण किया जाता एवं गिराया जाता है, शरीर के ऐसे भागों को देवताओं के नाम से सम्बोधित किया जाता है। बहुत-सी स्मृतियों में चार तीर्थों के नाम आये हैं। यथा प्राजापत्य या काय, पित्र्य, ब्राह्म एवं देव (मनु २५९, विष्णुधर्मसूत्र ६२।१-४, याज्ञवल्क्य १११९ आदि)। किन्तु शाट्यायनकल्प, वृद्ध दक्ष (२।१८) आदि में पांच नाम आये हैं, यथा देव (जब ब्राह्मण अपने दाहिने हाथ के अगले भाग को पूर्वाभिमुख करता है), पित्र्य (दाहिने हाथ का दाहिना भाग), ब्राह्म (अंगुलियों के सामने का भाग अर्थात् हथेली वाला भाग), प्राजापत्य (कानी अंगुली के पास वाला भाग) एवं पारमेष्ठ्य (दाहिने करतल का मध्यभाग) । पारस्करगृह्यसूत्र में पारमेष्ठ्य को आग्नेय कहा गया है। शंखस्मति (१०।१-२) ने काय एवं प्राजापत्य में अन्तर बताया है, ब्राह्म का नाम छोड़ दिया है और उसके स्थान पर प्राजापत्य रखा है। वैखानस (१५) ने छ: तीर्थों के नाम दिये हैं, जिनमें प्रथम चार ज्यों-के-त्यों हैं, पाँचवाँ आग्नेय (हथेली का मध्य भाग) एवं छठा आर्ष (सभी अंगुलियों की जड़े एवं पोर) है। कुछ लोगों के मत से देव तीर्थ अँगुलियों की पोरों पर है तथा सौम्य एवं आग्नेय हथेली के मध्य में हैं। हारीत के मत से दैव तीर्थ का उपयोग मार्जन, देव-पूजन, बलि देने या भोजन में होता है; काय तीर्थ का उपयोग लाजा-होम, आह्निक होम में तथा पित्र्य तीर्थ का उपयोग पितरों के कृत्यों में होता है। कमण्डल-स्पर्श में, दही एवं नवान्न खाने में सौम्य तीर्थ का उपयोग होता है (स्मृत्यर्थसार, पृ० २०)। जब जल की दुर्लभता हो और आचमन करना आवश्यक हो तो दाहिना कान छू लेना पर्याप्त माना जाता है (स्मृत्यर्थसार, पृ० २१) । आचमन के विषय में निबन्धों ने बड़ा विस्तार किया है। जिसे हम स्थानाभाव से यहाँ उपस्थित नहीं कर रहे हैं । इस विषय में देखिए स्मृतिचन्द्रिका (१, पृ० ९५-१०४), स्मृतिमुक्ताफल, आह्निकप्रकाश (पृ० २२१-२४०), आह्निक-तत्त्व (१० ३३३-३४४), गृहस्थरत्नाकर (पृ० १५०-१७२) आदि। आपस्तम्बस्मति (पद्य में) के मत से आचमन की
१७. तीर्थमिति - दक्षिणहस्तेऽवतारप्रदेशनामधेयम्। लोकेप्युदकाद्यवतारे तीर्थशब्दः प्रसिद्धः। तानि च विषकार्योपयिकत्वात् स्तुत्य देवताभिराख्यायन्ते। विश्वरूप (याज्ञवल्क्य १११९)।
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