________________
प्रातः कृत्य
३६१ जिससे पवित्रता या शौच प्राप्त हो जाय । " स्मृत्यर्थसार ( पृ० १९ ) ने दक्ष (५।१२) का अनुसरण करते हुए लिखा है कि रात्रि में दिन के लिए व्यवस्थित शौच का आधा, रोगी के लिए एक-चौथाई तथा यात्री के लिए केवल अष्टमांश होना चाहिए, तथा स्त्रियों, शूद्रों, बच्चों (जिनका उपनयन अभी न हुआ हो) के लिए मिट्टी के भाग की निर्धारित संख्या नहीं है। स्वच्छ करने में प्रस्तर, वस्त्र खण्ड एवं पेड़ की नयी टहनियाँ प्रयोग में नहीं लानी चाहिए ( आपस्तम्बधर्मसूत्र १।११।३० ३०, गौतम ९।१५ ), और न नदी या झील के भीतर की, मंदिर की, वल्मीक ( चींटियों के टीले) की, चूहों के छिपने के स्थलों की, गोबर-स्थल की तथा काम में लाने से अवशिष्ट मिट्टी प्रयोग में लानी चाहिए ( वसिष्ठधर्मसूत्र ६।१७ ), और न कब्र या मार्ग वाली या कीड़ों से भरी, या कोयले, हड्डियों या बालू वाली मिट्टी ही प्रयोग में लानी चाहिए।
इस विषय में और देखिए दक्ष (५/७ ), जो मिट्टी की मात्रा के विषय में व्यवस्था देते हैं । प्रथम बार उतनी मिट्टी जितनी आधे हाथ में आ सके, दूसरी बार उसका आधा भाग... और इसी प्रकार कम करते जाना चाहिए । मिट्टी का अंश आमलक फल के आकार का होना चाहिए (कूर्मपुराण, स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १८२ में उद्धृत ) । जूता पहनकर मल-मूत्र त्याग नहीं करना चाहिए ( आपस्तम्ब धर्मसूत्र १।११।३०।१८ ) ; उस समय यज्ञोपवीत को दाहिने कान पर लटका लेना चाहिए या निवीत रूप में पीठ पर चढ़ा लेना चाहिए। याज्ञवल्क्य (१1१६) के मत से यज्ञोपवीत को केवल दाहिने कान पर लटका लेना चाहिए। वनपर्व (५९/२ ) में आया है कि जब नल ने मूत्र त्याग के उपरान्त अपना पैर नहीं धोया तो कलि ( दुर्गुण एवं झगड़ा आदि का देवता ) उनमें प्रविष्ट हो गया।
शौच के प्रकार
प्रातः समय शरीर स्वच्छता तो सामान्य शौच का केवल एक अंग है । गौतम ( ८।२४) के मत से शौच ए आत्मगुण है। ऋग्वेद (७/५६।१२ आदि) ने शुचित्व पर बल दिया है। हारीत के अनुसार “ शौच धर्म की ओर प्रथम मार्ग है। यहाँ ब्रह्म (वेद) का निवास स्थान है, श्री (लक्ष्मी) भी यहीं रहती है, इससे मन स्वच्छ होता है, देवता इससे प्रसन्न रहते हैं, इसके द्वारा आत्म बोध होता है और इससे बुद्धि का जागरण होता है।"" बौधायनधर्मसूत्र ( ३।१।२६), हारीत, दक्ष (५1३) एवं व्याघ्रपाद (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ०९३ में उद्धृत) के अनुसार शौच के दो प्रकार हैं, यथा बाह्य ( बाहरी) एवं आन्तर या आभ्यन्तर, जिनमें प्रथम पानी एवं गीली या भुरभुरी मिट्टी से तथा दूसरा अपने मनोभावों की पवित्रता से प्राप्त होता है। हारीत ने बाह्य शौच को तीन भागों में विभाजित किया है; (१) कुल (कुल में जन्म एवं मरण के समय उत्पन्न अशौच से पवित्र होना ), अर्थ ( सभी प्रकार के पात्रों एवं पदार्थों को स्वच्छ रखना) एवं शरीर ( अपने शरीर को शुद्ध रखना) । उन्होंने आभ्यन्तर को पाँच भागों में बाँटा है; (१) मानस, (२) चाक्षुष ( न देखने योग्य पदार्थों को न देखना ), (३) प्राप्य ( न सूंघने योग्य वस्तुओं को न सूंघना ),
१५. यावत्साध्विति मन्येत तावच्छौचं विधीयते । प्रमाणं शौचसंख्यायां न शिष्टंरुपविश्यते ॥ देवल (गृहस्थरत्नाकर, पृ० १४७ में एवं स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० ९३ में उद्धृत ) ।
१६. तत्र हारीतः । शौचं नाम धर्माविषयो ब्रह्मायतनं श्रियोधिवासो मनसः प्रसादनं देवानां प्रियं शरीरे क्षेत्रवर्शनं बुद्धिप्रबोधनम् । गृहस्थरत्नाकर, पृ० ५२२ ।
शौचं च द्विविषं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा । मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्य भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥ वक्ष ५१३ एवं व्याघ्रपाद ।
४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org