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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ३५० इण्डिका, जिल्द १४, पृ० २६५, २६७, जहाँ पर सिन्ध महामण्डलेश्वर राचमल्ल ने अपने सरदार बेचिराज की दो विधवाओं के, जो कि सती हो गयीं, कहने पर शक संवत् १९०३ में एक मन्दिर बनवाया । इसी प्रकार कई एक अभिलेख प्राप्त होते हैं, जिन्हें स्थानाभाव के कारण यहां नहीं दिया जा रहा है। सन् १७७२ ई० में पेशवा माधवराव की पत्नी रमा बाई सती हो गयी थी । चिंत्तौड़ तथा अन्य स्थानों पर राजपुत्रियों, रानियों आदि द्वारा खेले गये जौहर की कहानियाँ अभी बहुत ताजी हैं। मुसलमानों के क्रूर हाथों में पड़ने तथा बलात्कार सहने की अपेक्षा राजपूतों की रानियाँ, पुत्रियाँ तथा अन्य राजपूत कुमारियाँ अपने को अग्नि में झोंक देती थीं। पुरुष भी सहमरण या अनुमरण करते थे। देखिए इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ३५ पृ० १२९, जहां इस प्रकार के बहुत से उदाहरण उद्धृत किये गये हैं। बहुत-से पुरुष अपनी स्वामि-भक्ति तथा अन्य कारणों से भस्म हो जाया करते थे। इन सतियों एवं पुरुषों की स्मृति में प्रस्तर-स्तम्भ खड़े किये जाते थे, जिन्हें मास्तिक्कल ( महासती के लिए प्रस्तर-स्तम्भ या यशस्तम्भ) या विरक्कल ( वीर एवं भक्त लोगों के लिए यशस्तम्भ ) कहा जाता था। हर्षचरित में बाण ने लिखा है कि प्रभाकरवर्धन की मृत्यु पर कितने ही मित्रों, मंत्रियों, दासों एवं स्नेहपात्रों ने अपने को मार डाला । राजतरंगिणी (७।४८१) में आया है कि अनन्त की रानी जब सती हो गयी तो उसका चटाई ढोनेवाला, कुछ अन्य पुरुष तथा तीन दासियाँ उसकी अनुगामी हो गयीं। एक उदाहरण माता का मी मिलता है जो अपने पुत्र के साथ सती हो गयी ( राजतरंगिणी ७।१३८० ) । प्रयाग जैसे स्थानों पर स्वर्ग प्राप्ति के लिए आत्महत्या तक हो जाया करती थी । ऐतिहासिक कालों में जो सती-प्रथा प्रचलित थी, उसके पीछे कोई पौरोहितक या धार्मिक दबाव नहीं था, और न अनिच्छुक नारियाँ ऐसा करती थीं। यह प्रथा कालान्तर में बढ़ती गयी, पर यह कहना कि पुरुषों ने इसके बढ़ने में सहायता की, अनुचित है। एक रोचक मनोभाव के कारण ही सती प्रथा का विकास हुआ। प्रथमतः यह राजकुलों एवं भद्र लोगों तक ही सीमित थी, क्योंकि प्राचीन काल में विजित राजाओं एवं शूरों की पत्नियों की स्थिति बड़ी ही दयनीय होती थी । जीते हुए लोग विजित लोगों की पत्नियों से ही बदला चुकाते थे और उन्हें बन्दी बनाकर ले जाते थे और उनके साथ दासियों जैसा व्यवहार करते थे। मनु (७/९६) ने सैनिकों को युद्ध में प्राप्त वस्तुओं के साथ स्त्रियों को मी पकड़ लेने की आज्ञा दी है। प्रभाकरवर्धन की स्त्री यशोमती अपने पुत्र हर्ष से वर्णन करती है कि विजित राजाओं की पत्नियाँ उसको पंखा झला करती हैं ( हर्षचरित ५ ) । क्षत्रियों से यह प्रथा ब्राह्मणों में भी पहुँच गयी, यद्यपि जैमा कि हमने ऊपर देख लिया है, स्मृतिकारों ने ब्राह्मणियों के लिए सती होना उचित नहीं माना है। एक बार जब यह प्रथा जड़ पकड़ गयी तो निबन्धकारों एवं टीकाकारों ने इसको बल दे दिया और सतियों के लिए भविष्य में मिलने वाले पुरस्कारों (पुण्य) की चर्चा चला दी। सतियों के लिए निम्नलिखित प्रतिफल (पुण्यप्राप्ति) की चर्चा की गयी है - शंख-लिखित एवं अंगिरा के अनुसार जो नारी पति की मृत्यु का अनुसरण करती है, वह मनुष्य के शरीर पर पाये जानेवाले रोमों की संख्या के तुल्य वर्षो तक स्वर्ग में बिराजती है, अर्थात् ३ || करोड़ वर्ष । जिस प्रकार संपेरा साँप को उसके बिल से खींच लेता है, उसी प्रकार सती होनेवाली स्त्री अपने पति को (चाहे जहाँ भी वह हो) खींच लेती है और उसके साथ कल्याण पाती है । .... सती होने वाली स्त्री अरुन्धती के समान ही स्वर्ग में यश पाती है।' हारीत के मत में जो स्त्री सती होती है, वह तीन कुलों को, ३. तिस्रः कोट्योऽर्थकोटी च यानि लोमानि मानुषे । तावत्कालं वसेत्स्वगं भर्तारं यानुगच्छति ॥ व्यालय ही यथा सर्प बलाबुद्धरते बिलात् । तदुबुत्य सा नारी सह तेनैव मोदते ॥ तत्र सा भर्तृ परमा स्तूयमानाप्सरोगणैः । क्रीडते पतिना सावं यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ब्रह्मघ्नो वा कृतघ्नो या मित्रघ्नो वा भवेत्पतिः । पुनात्यविधवा नारी तमादाय मुता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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