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________________ परिवेदन ३११ ऐसे सम्बन्ध से बड़े भाई अथवा बड़ी बहिन के अधिकारों की अवहेलना हो जाती थी तथा पाप लगता था । गौतम ( १५/१८) एवं आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २।५।१२-२२ ) के अनुसार यदि छोटा भाई बड़े भाई के पूर्व विवाह कर ले तथा बड़ा भाई छोटे भाई के उपरान्त विवाह करे तो दोनों पाप के भागी होते हैं और उन्हें श्राद्ध में नहीं बुलाया जाना चाहिए। आपस्तम्ब का आगे कहना है कि जो बड़ी बहिन के रहते छोटी बहिन से तथा जो छोटी बहिन का विवाह हो जाने के उपरान्त बड़ी बहिन से विवाह करता है वह पापी है। इसी प्रकार जो अपने छोटे भाई द्वारा पवित्र अग्नि स्थापित किये जाने तथा सोमयज्ञ करने के उपरान्त वैसा करता है, वह भी पापी है । वसिष्ठधर्मसूत्र ( १।१८ ), विष्णुधर्म सूत्र ( ३७।१५-१७) आदि ने भी यही बात कही है । वसिष्ठधर्मसूत्र ( २०१७- १०) ने छोटी बहिन के पति तथा बड़ी बहन के पति के लिए २० दिनों के कृच्छ्र नामक प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है और दोनों को एक-दूसरे की पत्नी की अदला-बदली (केवल दिखावट मात्र ) करने की आज्ञा दी है और एक-दूसरे की आज्ञा लेकर पुनः विवाह करने की व्यवस्था दी है (देखिए इस विषय में बौधायनधर्मसूत्र २।१।४० ) । छोटे भाई को, जो बड़े से पहले विवाहित हो जाता है, परिवेसा या परिविविदान ( मनु ३ | १७१, आपस्तम्बधर्मसूत्र २।५।१२ । २१ ) या परिविन्दक (याशवल्क्य १।२२३ ) कहा जाता है, तथा बड़े भाई को, जो अपने छोटे माई के उपरान्त विवाहित होता है, परिवित्ति या परिविन या परिवित्त (मनु ३ । १७१) कहा जाता है। छोटी बहिन को, जो अपनी बड़ी बहिन के पूर्व विवाहित हो जाती है, अप्रे-विधिषू (गौतम० १५/१५, वसिष्ठ० १।१८) या परिवेदिनी कहा जाता है। बड़ी बहिन को, जो छोटी बहिन के विवाह के उपरान्त विवाहित होती है, विधिषु कहा जाता है। उपर्युक्त अन्तिम दो के पतियों को क्रम से अविधिषूपति एव विधिषूपति कहते हैं। पिता अथवा अभिभावक को, जो परिवेदन की उपर्युक्त कन्याओं का विवाह रचाते हैं, परिवासी या परिवाता कहा जाता है। छोटे भाई को, जो अपने बड़े भाई के पूर्व पूत अग्नि जलाता है, पर्याबाता तथा इस प्रकार के बड़े भाई को पर्याहित कहा जाता है। गौतम ( १५/१८), मनु ( ३।१७२), बौधायनधर्मसूत्र (२।१।३०) एवं विष्णुधर्मसूत्र ( ५४/१६ ) के अनुसार परिवेत्ता, परिवित्त एवं वह लड़की, जिससे छोटा भाई बड़े माई के पूर्व विवाह करता है, विवाह करा देनेवाला ( पिता या अभिभावक ) एवं पुरोहित ये पांचों नरक में गिरते हैं। विष्णु के मत से इन्हें छुटकारे के लिए चान्द्रायण व्रत करना चाहिए। याज्ञवल्क्य ( ३।२६५ ) की टीका मिताक्षरा में भी यही बात उल्लिखित है। इस विषय में अन्य मतों के लिए देखिए मनु (३।१७१) पर मेघातिथि की टीका, अपरार्क पृ० ४४६, त्रिकाण्डमण्डन ( १।७६-७७ ), स्मृत्यर्थसार ( पृ० १३ ) । विष्णुधर्मसूत्र ( ३७।१५-१७) ने परिवेदन की गणना उपपातकों में की है। अन्य मतों के लिए देखिए गौतम (१८११८-१९ ) एवं अपरार्क ( पृ० ४४५) । कुछ दशाओं में, यथा बड़े भाई के उन्मादी, पापी, कोढ़ी होने तथा नपुंसक या यक्ष्मा से पीड़ित होने पर, बाट जोहना व्यर्थ है ( मेधातिथि-मनु ३।१७१, अत्रि १०५ -१०६, गोभिलस्मृति १।७२-७४, त्रिकाण्डमण्डन ११६८-७४, स्मृत्यर्थसार पु० १३ एवं संस्कारप्रकाश पृ० ७६० - ७६६ ) । परिवेदन के विषय में हमें वैदिक साहित्य में भी संकेत मिलता है (देखिए तैत्तिरीय संहिता ३।२२९, ३१४१४) । तैत्तिरीय संहिता में प्रयुक्त उपाधियाँ हैं सूर्याभ्युदित, सूर्याभिनिर्मुक्त, कुनखी, श्यावदन्, अग्रेदिधिषू, परिवित्त, वीरहा, ब्रह्महा । यही क्रम वसिष्ठषर्मसूत्र ( १।१८) में भी पाया जाता है। तैत्तिरीय संहिता ( ३।४/४) में पुरुषमेष के विषय में चर्चा करते समय परिवित्त को अभाग्य ( निर्ऋति), परिविविदान को आति ( कष्ट या क्लेश) तथा विधिषूपति को अराषि के हवाले किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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