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धर्मशास्त्र का इतिहास क्या कोई अपने मामा या फूफी की लड़की से, विशेषतः प्रथम से विवाह कर सकता है ? इस बात पर प्राचीन काल से ही गहरा मतभेद रहा है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (११७२११८) ने अपने माता-पिता एवं सन्तानों के समानोदर सम्बन्धियों (माताओं एवं बहिनों) से संभोग करने को पातकीय क्रियाओं (महापापों) में गिना है। इस नियम के अनुसार अपने मामा एवं फूफी का लड़की से विवाह करना पाप है। बौधायनधर्मसूत्र (१०१९-२६) के अनुसार दक्षिण में पाँच प्रकार की विलक्षण रीतियां पायी जाती हैं-~-बिना उपनयन किये हुए लोगों के साथ बैठकर खाना, अपनी पली के साथ बैठकर खाना, उच्छिष्ट भोजन करना, मामा तथा फूफी की लड़की से विवाह करना। इससे स्पष्ट है कि बौधायन के बहुत पहले से दक्षिण में (सम्भवतः नर्मदा के दक्षिण भाग में) मामा तथा फूफी (पिता की बहिन) की लड़की से विवाह होता था, जिसे कट्टर धर्मसूत्रकार, यथा गौतम एवं बौधायन निन्द्य मानते थे। मनु (११।७२-१७३) ने मातुलकन्या, मौसी की कन्या या पिता की बहिन की कन्या (पितृष्वसृदुहिता) से संभोग-सम्बन्ध पर चान्द्रायण व्रत के प्रायश्चित्त की बात कही है, क्योंकि ये कन्याएं सपिण्ड कही जाती हैं, इनसे विवाह करने पर नरक की प्राप्ति होती है। हरदत्त ने आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।५।११६) की व्याख्या करते हुए शातातप का एक श्लोक उद्धृत किया है और कहा है कि यदि कोई मातुलकन्या से विवाह कर ले या सपिण्ड गोत्र या माता के गोत्र (नाना के गोत्र)या सप्रवर गोत्र की कन्या से विवाह कर ले तो उसे चान्द्रायण व्रत करना चाहिए। याज्ञवल्क्य (३।२५४) की व्याख्या में विश्वरूप ने मनु (११॥ १७२) तथा संवर्त को उद्धृत कर मातुलकन्या से संभोग कर लेने पर पराक प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है। मनु (२। १८) की व्याख्या में मेधातिथि ने कुछ प्रदेशों में इस प्रथा की चर्चा की है। मध्य काल के कुछ लेखकों ने मातुलकन्या से विवाह-सम्बन्ध की भर्त्सना की और कुछ ने इसे स्वीकार किया। अपरार्क (पृ० ८२-८४) ने भर्त्सना की है और यही बात निर्णयसिन्धु में भी पायी जाती है (पृ० २८६)। किन्तु स्मृतिचन्द्रिका (भाग १, पृ० ७०-७४), पराशरमाधवीय (११२, पृ० ६३-६८) आदि ने मातुलकन्या से विवाह-सम्बन्ध वैध माना है। वे यह मानते हैं कि मनु, शातातप, सुमन्तु आदि ने इसे भर्त्सना की दृष्टि से देखा है, तथापि वे कहते हैं कि वेद के कुछ वाक्यों, कुछ स्मृतियों तथा कुछ शिष्टों ने इसे मान्यता दी है, अतः ऐसे विवाह सम्बन्ध सदाचार के अन्तर्गत आते हैं। वे इस विषय में शतपथब्राह्मण (१८ ३॥६) को उद्धृत करते हैं। विश्वरूप (याज्ञवल्क्य ११५३) ने भी इस वैदिक अंश को उद्धृत किया है, किन्तु वे यह नहीं कहते कि इससे मातुलकन्या का विवाह-सम्बन्ध वैध सिद्ध किया जा सकता है। स्मृतिचन्द्रिका, पराशरमाधवीय तथा अन्य ग्रन्थों ने खिल सूक्त को उद्धृत किया है जिसका तात्पर्य यह है-"आओ हे इन्द्र, अच्छे मार्गों से हमारे यज्ञ में आओ और अपना अंश लो। तुम्हारे पुजारियों ने घृत से बना मांस तुम्हें उसी प्रकार दिया है, जैसे कि मातुलकन्या एवं फूफी की कन्या विवाह में लोगों के भाग्य में पड़ती है।" विश्वरूप (याज्ञवल्क्य ११५३) ने इसकी व्याख्या अन्य ढंग से की है। अपरार्क (याज्ञवल्क्य ११५३) ने भी इस उद्धरण के उत्तरांश की व्याख्या दूसरे ढंग से करके मातुलकन्या के विग्रह को अमान्य ठहराया है। वैद्यनाथकृत स्मृतिमुक्ताफल का कहना है--"आन्ध्रों में शिष्ट लोग वेदपाठी होते हैं और मातुलसुता-परिणय को मान्यता देते हैं; द्रविणों में शिष्ट लोग समान पूर्वज से चौथी पीढ़ी में विवाह-सम्बन्ध वैध मानते हैं।" दक्षिण में (मद्रास प्रान्त आदि में) कुछ जातियां मातुलकन्या से विवाह करना बहुत अच्छा समझती हैं। कुछ ब्राह्मण जातियाँ, यथा कर्नाटक एवं कर्हाड़ के देशस्थ ब्राह्मण आज भी इस नियम को मानते हैं। संस्कारकौस्तुम (पृ० ६१६१६२०) एवं धर्मसिन्धु मातुलसुता-परिणयन को वैध मानते हैं।
स्त्री के गोत्र के विषय में स्मृतियों एवं निबन्धों में बहुत विवेचन किया गया है। आश्वलायनगृह्यसूत्र (१॥८ १२) की व्याख्या में कुछ लोगों ने यह स्वीकार किया है कि विवाह के उपरान्त पति एवं पत्नी, दोनों एक गोत्र के हो जाते हैं (लघु हारीत)। यम (८६), लिखित (२५) का कथन है कि विवाह के उपरान्त चौथी रात्रि को पत्नी पति के साथ एक और एक गोत्र वाली हो जाती है, उसका पिण्ड एवं अशीच एक हो जाता है। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य १२२५४)
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