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________________ विवाह की अवस्मा २७५ बात मनुशासनपर्व ( १६), बौधायनधर्मसूत्र (११।१४) एवं वसिष्ठधर्मसूत्र (१७१६७-६८) में भी पायी जाती है। किन्तु अन्तिम दोनों धर्मसूत्रों (वसिष्ठ० १७७०-७१ एवं बौधायन ४११।१२) ने यह भी कहा है कि अविवाहित कन्या रहने पर पिता या अभिभावक कन्या के प्रत्येक मासिक धर्म पर गर्म गिराने के पाप का भागी होता है। यही नियम याज्ञवल्क्य (११६४) एवं नारद (स्त्रीपुंस, २६-२७) में भी पाया जाता है। इसी कारण कालान्तर में एक नियम-सा बन गया कि कन्या का विवाह शीघ्र हो जाना चाहिए, भले ही वर गुणहीन ही क्यों न हो (मनु ९।८९ के विरोध में भी)। इस विषय में देखिए बौषायनधर्मसूत्र (४।१।१२ एवं १३)।" । उपर्युक्त विवेचनों से स्पष्ट है कि लगभग ई० पू० ६०० से ईसा की आरम्भिक शताब्दी तक युवती होने के कुछ मास इधर या उधर विवाह.कर देना किसी गड़बड़ी का सूचक नहीं था। किन्तु २०० ई० के लगभग (यह वही काल है जब कि याज्ञवल्क्यस्मृति का प्रणयन हुआ था) युवती होने के पूर्व विवाह कर देना आवश्यक-सा हो गया था। ऐसा क्यों हुआ, इस पर प्रकाश नहीं मिलता। सम्भवतः यह निम्मलिखित कारणों से हुआ। इन शताब्दियों में बौद्ध धर्म फा पर्याप्त विस्तार हो चुका था और साधु-साधुनियों अर्थात् भिक्षु-भिक्षुणियों की संस्थाओं की स्थापना के लिए धार्मिक अनुमति-सी मिल चुकी थी। मिक्षुणियों के नैतिक जीवन में पर्याप्त ढीलापन आ गया था। दूसरा प्रमुख कारण यह था कि अधिकांश में कन्याओं का पठन-पाठनं बहुत कम हो गया था, यद्यपि कुछ कन्याएँ अब भी (अर्थात् पाणिनि एवं पतंजलि के कालों में) विद्याध्ययन करती थीं। ऐसी स्थिति में अविवाहित कन्याओं को अकारण निरर्थक रूप में रहने देना भी समाज को मान्य महीं था। ऋग्वेद (१०।८५।४०-४१) के समय से ही एक रहस्यात्मक विश्वास चला आ रहा था कि सोम, गन्धर्व एवं अग्नि कन्याओं के देवी अभिभावक हैं और गृह्यसंग्रह (गोभिलगृ० ३।४।६ की व्याख्या में उद्धृत) का कहना था कि कन्या का उपभोग सर्वप्रथम सोम करता है, जब उसके कुच विकसित हो जाते हैं तब उसका उपभोग गन्धर्व करता है और जब वह ऋतुमती हो जाती है तो उसका उपभोग अग्नि करता है। इन कारणों से समाज में एक घारणा घर करने लग गयी कि कन्या के अंगों में किसी प्रकार का परिवर्तन होने के पूर्व ही उसका विवाह कर देना श्रेयस्कर है। संवर्त (६४ एवं ६७) ने भी यही अभिव्यक्ति दी है। एक विशिष्ट कारण यह था कि अब कन्याओं के लिए विवाह ही उपनयन-संस्कार माना जाने लगा था, क्योंकि उपनयन के लिए आठ वर्ष की अवस्था निर्धारित थी, अतः वही अवस्था कन्या के विवाह के लिए उपयुक्त मानी जाने लगी। यह भी एक विश्वास-सा हो गया कि अविवाहित रूप से मर जाने पर स्त्री को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती थी। महाभारत के शल्यपर्व (५२।१२) में एक कन्या के विषय में एक दारुण कथा यों है-कुणि गर्ग की कन्या ने कठिन तपस्याएं की और इस प्रकार बुढ़ापे को प्राप्त हो गयी, तथापि नारद ने यह कहा कि वह अविवाहित रूप से स्वर्ग नहीं प्राप्त कर सकती। उस नारी ने गालव कुल के शृंगवान् ऋषि से मृत्यु के एक दिन पूर्व विवाह कर लेने की प्रार्थना इस शर्त पर की कि वह उसे अपनी तपश्चर्या से ११. रबाद गुणवते कन्यां नग्निकां ब्रह्मचारिणीम् । अपि वा गुणहीनाय नोपरुन्ध्याद्रजस्वलाम् ॥ अविद्यमाने सदृशे गुणहीनमपि भवेत् । बौधायनधर्मसूत्र ४३१३१२ एवं १५॥ १२. रोमकाले तु सम्प्राप्ते सोमो भुंक्तेऽथ कन्यकाम् । रजो दृष्ट्वा तु गन्धर्वाः कुचौ दृष्ट्वा तु पावकः॥... तस्माद् विवाहयेत्कन्या यावभर्तुमती भवेत् । विवाहो ह्यष्टवायाः कन्यायास्तु प्रशस्यते॥ संवर्त, श्लोक ६४ एवं ६७ (स्मृतिचन्द्रिका द्वारा उत, भाग १, पृ० ७९, तथा चमेश्वरकृत गृहस्थरत्नाकर , पृ० ४६)। स्त्रीणामुपनयनस्थानापन्नो विवाह इति तदुचितावस्थायां विवाहस्योचितत्वात् । संस्कारकौस्तुभ, पृ० ६९९; विवाहं चोपनयनं स्त्रीणामाह पितामहः । तस्माद् गर्भाष्टमः श्रेष्ठो जन्मतो वाष्टवत्सरः॥ यम (स्मृतिमुक्ताफल, वर्णाश्रमधर्म, पृ० १३६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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