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विवाह
२७१ ४-७), वाराहगृह्यसूत्र (१०), भारद्वाजगृह्यसूत्र (११३१), मानवगृह्यसूत्र (११७१९-१०) आदि ने लम्बी चौड़ी कल्पनात्मक बातें कही हैं, जिन्हें स्थानाभाव से यहाँ नहीं दिया जा रहा है।
गौतम (४।१), वसिष्ठ (८१), मानवगृ० (११७१८), याज्ञवल्क्य (११५२) एवं अन्य धर्मशास्त्रकारों ने लिखा है कि कन्या वर से अवस्था में छोटी (यवीयसी) होनी चाहिए। कामसूत्र (३।१।२) तो उसे कम-से-कम तीन वर्ष छोटी मानने को तैयार है। विवाह के योग्य अवस्था क्या है, इस पर हम आगे लिखेंगे।
गौतम (४।१), वसिष्ठ (८1१), याज्ञवल्क्य (११५२), मनु (३।४ एवं १२) तथा अन्य लोगों के मत से अक्षतयोनि तथा समान जाति वाली से ही विवाह करना चाहिए। विधवा-विवाह तथा अन्तर्जातीय विवाह कहाँ तक आदेशित था, इस पर आगे विचार किया जायगा।
___ मानवगृह्यसूत्र (११७।८), मनु (३।११) एवं याज्ञवल्क्य (११५३) ने लिखा है कि कन्या भ्रातृहीन नहीं होनी चाहिए। इस मत के पीछे एक लम्बा इतिहास पाया जाता है, यद्यपि यह आवश्यकता आज किसी रूप में मान्य नहीं है। ऋग्वेद (१११२४१७) में आया है-"जिस प्रकार एक भ्रातृहीन स्त्री अपने पुरुष-सम्बन्धी (पिता के कुल) के यहाँ लौट आती है, उसी प्रकार उषा अपने सौन्दर्य की अभिव्यक्ति करती है।" अथर्ववेद (१।१७।१) में हम पढ़ते हैं"भ्रातहीन स्त्रियों के समान उन्हें गौरवहीन होकर बैठे रहना चाहिए।" निरुक्त (३।४।५) ने दोनों वैदिक उक्तियों की व्याख्या की है। प्राचीन काल में पुत्रहीन व्यक्ति अपनी पुत्री को पुत्र मानता था और उसके विवाह के समय वर से यह तय कर लेता था कि उससे उत्पन्न पुत्र उसका (लड़की के पिता का) हो जायगा और अपने नाना को पुत्र के समान ही पिण्डदान देगा। इसका प्रतिफल यह होता था कि इस प्रकार की लड़की का पुत्र अपने पिता को पिण्डदान नहीं करता था और न अपने पिता के कुल को चलाने वाला होता था। इसी से भ्रातृहीन लड़की को दुलहिन बनाना उसे दूसरे रूप में पति के लिए न प्राप्त करना होता था। ऐसी भातहीन लड़कियों के अपने पिता के घर में ही बूढ़ी हो जाने की बात ऋग्वेद ने कही है (ऋ० २।१७।७)। वसिष्ठधर्मसूत्र (१७३१६) ने ऋग्वेद (१११२४१७) को उद्धृत किया है। भ्रातृहीन पुत्री को पुत्रिका कहा गया है, क्योंकि उसका पिता उसके होनेवाले पति से यह तय कर लेता है कि उससे उत्पन्न पुत्र उसको (पिता को) पिण्डदान देनेवाला हो जायगा। इसी से मनु (३।११) ने भ्रातृहीन लड़की से विवाह करने को मना किया है, क्योंकि उसके साथ यह भय रहता था कि उत्पन्न पुत्र से हाथ धो लेना पड़ेगा। मध्य काल में यह प्रतिबन्ध उठ-सा गया, और आज तो बात ही दूसरी है। वर्तमान काल में भ्रातृहीन कन्या वरदान रूप में मानी जाती रही है, विशेषतः जब उसका पिता बहुत ही धनी हो। पश्चात्कालीन साहित्य में ऐसा पाया जाने लगा कि बिना विवाह के कोई लड़की स्वर्ग नहीं जा सकती (महाभारत, शल्यपर्व, अध्याय ५२)। .
विवाह के विषय में अन्य प्रतिबन्ध भी हैं। ऐसा नियम था कि अपनी ही जाति की लड़की से विवाह हो सकता है। इस प्रकार के विवाह को अंग्रेजी में 'इण्डोगैमी' कहा जाता है। किन्तु एक ही विशाल जाति के भीतर कई दल हो जाते हैं, जिनमें कुछ दलों के लोग कुछ दलों से विाह-सम्बन्ध नहीं स्थापित कर सकते। इस प्रथा को अंग्रेजी में एक्सोगैमी' कहा जाता है। हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र (१।१९।२), गोभिल० (३।४।४) एवं आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।५।११५) ने कहा है कि अपने ही गोत्र से कन्या नहीं चुनी जानी चाहिए। किन्तु समान प्रवर के विषय में वे मौन हैं । गौतम (४।२),
७. अभातेव पुंस एति प्रतीची गारगिव सनये धनानाम् । जायेव पत्य उशती सुवासा उषा हनेव निरिणीते अप्सः॥ १।१२४१७ । संस्कारप्रकाश (पृ. ७४७) ने इस वैविक मन्त्र को, इस पर यास्क को निरुक्त-व्याख्या को तथा बसिक को बत किया है।
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