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________________ पत्नी के गर्भवती होने के कारण दूसरी पत्नी ग्रहण करने तथा धार्मिक कृत्य करने को मना करता है, तो इसका तात्पर्य यह है कि विवाह के दो प्रमुख उद्देश्य हैं--(१) पत्नी पति को धार्मिक कृत्यों के योग्य बनाती है तथा (२) वह पुत्र या पुत्रों की माता होती है और पुत्र ही नरक से रक्षा करते हैं। मनु (९।२८) के अनुसार पत्नी पर पुत्रोत्पत्ति, धार्मिक कृत्य, सेवा, सर्वोत्तम आनन्द (परमानन्द), अपने तथा अपने पूर्वजों के लिए स्वर्ग की प्राप्ति निर्भर रहती है। अतः स्पष्ट है कि धर्म सम्पत्ति, प्रजा (तथा इसके फलस्वरूप नरक में गिरने से रक्षा) एवं रति (यौनिक तथा अन्य स्वाभाविक आनन्दोत्पत्ति) ये तीन विवाह-सम्बन्धी प्रमुख उद्देश्य स्मृतियों एवं निबन्धों ने माने हैं। यही बात याज्ञवल्क्य (११७८) में भी देखने को मिलती है। जैमिनि (६।१।१७) एवं आपस्तम्बधर्मसूत्र (११।६।१३।१६-१७) ने पत्नी के महत्व पर प्रकाश डाला है। अच्छे वर के लक्षण क्या हैं ? वर का चुनाव किस प्रकार होना चाहिए? आश्वलायनगृह्यसूत्र (११५२) का कहना है कि बुद्धिमान् वर को ही कन्यादान करना चाहिए। आपस्तम्बगृह्यसूत्र (३।२०) के अनुसार अच्छे वर के लक्षण हैं अच्छा कुल, सत् चरित्र, शुम गुण, ज्ञान एवं सुन्दर स्वास्थ्य। अन्य बातों के लिए देखिए बौधायनधर्मसूत्र (४।१।१२), यम (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० ७८)। शाकुन्तल ना० (४) में भी वर के गुणों की ओर संकेत किया गया है।' यम ने वर के लिए सात गुण गिनाये हैं, यथा कुल, शील, वपु (शरीर), यश, विद्या, धन एवं सनाथता (सम्बन्धी एवं मित्र लोगों का आलम्बन)। बहत्पराशर ने आठ लक्षण कहे हैं-जाति, विद्या, यवावस्था, बल, स्वार लोगों का आलम्बन, अभिकांक्षा (अर्थित्व) एवं धन। आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।५।१) ने कुल को सर्वोपरि स्थान दिया है। ऐसा ही मनु (४।२४४ एवं ३।६।७) ने भी कहा है। मनु ने दस प्रकार के कुलों से सम्बन्ध जोड़ने को मना किया है, यथा जहाँ संस्कार न किये जाते हों, जहां पुत्रोत्पत्ति न होती हो, जहाँ वेदाध्ययन न होता हो, जिसके सदस्यों के शरीर पर केश अधिक मात्रा में हों, जिसमें लोग बवासीर या क्षयरोग या अजीर्ण या मिर्गी या गलित या शुष्क कुष्ठ से पीड़ित हों। और भी देखिए मनु (२।२३८, ३१६३-६५), हर्षचरित (४), याज्ञवल्क्य (११५४-५५)। कात्यायन ने वर के दोष इस प्रकार बताये हैं, यथा पागलपन, पाप (अपराध), कुष्ठता, नपुंसकता, स्वगोत्रता, अंधापन. बहिरापन, अपस्मार (मिर्गी)। कात्यायन ने कन्या के लिए भी ये ही बातें कहीं हैं। कात्यायन की तालिका वर एवं कन्या दोनों पक्षों ८७।२।३। अर्क वा एष आत्मनो यत्पत्नी । तैत्तिरीय संहिता में आया है (६३११८०५)। तस्मात् पुरुषो जायां विस्वा कृत्स्नतरमिवात्मानं मन्यते । ऐतरेय ब्राह्मण १।२।५; न गृहं गृहमित्याहगंहिणी गृहमुच्यते। शान्तिपर्व १४४॥ ६६; अब भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतमः सखा। भार्या मूलं त्रिवर्गस्य भार्या मूलं तरिष्यतः॥ आदिपर्व ७४।४०; आम्नाये स्मृतितन्त्रेच लोकाचारे च सूरिभिः। शरीराध स्मृता भार्या पुण्यापुण्यफले समा॥ बृहस्पति (अपरार्क द्वारा उक्त, पृ० ७४०)। __४. बुद्धिमते कन्या प्रयच्छेत । आश्व० गृ० १।५।२; दद्याद् गुणवते कन्या नग्निकां ब्रह्मचारिणे। बौ०७० ४११०२०बन्धुशीललक्षणसपन्नः श्रुतवानरोग इति बरसंपत् । आप० गृ० (१२३३२०); गुणवते कन्यका प्रतिपादनीयेत्ययं तावत्प्रथमः संकल्पः । शाकुन्तल (४) कुलं च शीलं च वपुर्यशश्च विद्यां च वितंच सनायतां च । एतान्गुणान् सप्त परीक्य या कन्या बुषः शेषमचिन्तनीयम् ॥ यम (स्मृतिचन्द्रिका, १, पृ. ७)। ५. उन्मत्तः पतितः कुष्ठी तथा पछः स्वगोत्रजः । धनुःश्रोत्रविहीनश्च तथापस्मारदूषिताः। वरवोषाः स्मृता होते कन्यागोषाश्च कीर्तिताः। स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० ५९; उन्मत्तः पतितः क्लीयो दुभंगस्त्यक्तबान्धवः ॥ कन्यादोषी च यो पूविष बोषगणो वरे॥ नारद (स्त्रीपुंसयोग, ३७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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