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________________ २६७ ब्रह्मचर्य के उपरान्त तुरन्त संन्यास नहीं ग्रहण कर सकता । मनु (४११, ६ १, ३३-३७, ८७-८८) इसके प्रबल समर्थक हैं। इस पक्ष वाले विवाह एवं संभोग को अपवित्र एवं तप के लिए बुरा नहीं मानते, प्रत्युत विवाह एवं सम्भोग को तप-जीवन से उच्च मानते हैं । धर्मशास्त्रकारों में अधिकांश गृहस्थाश्रम को बहुत गौरव देते हैं और वानप्रस्थ एवं संन्यास को विशेष महत्व नहीं देते, कुछ ने तो वानप्रस्थ एसं संन्यास को कलियुग के लिए अयोग्य ठहरा दिया है। दूसरे पक्ष वाले ब्रह्मचर्य के उपरान्त विकल्प की बात करते हैं, अर्थात् अध्ययन के उपरान्त या गृहस्थाश्रम के उपरान्त परिव्राजक हुआ जा सकता है। प्रथम पक्ष (समुच्चय) के स्थान पर यह विकल्प पक्ष जाबालोपनिषद् द्वारा रखा गया है (देखिए अन्य संकेत, वसिष्ठ ७३, लघु विष्णु २।१, याज्ञवल्क्य ३।५६ ) । आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २/९/२१।७-८ एवं २।९।२२।७-८) ने भी इस पक्ष का समर्थन किया है । बाघ नामक तीसरे पक्ष का समर्थन प्राचीन धर्मसूत्रकारों ने किया है, यथा गौतम एवं बौधायन । इस मत से केवल एक ही आश्रम वास्तविक माना जाता है और वह है गृहस्थाश्रम (ब्रह्मचर्य केवल तैयारी मात्र है ) ; अन्य आश्रम इससे अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण हैं ( गौतम ३ । १ एवं ३५ ) । मनु ( ६।८९-९०, ३१७७-८० ), वसिष्ठघर्मसूत्र ( ८1१४-१७), दक्ष (२।५७-६०), विष्णुधर्मसूत्र (५९/२९) आदि गृहस्थाश्रम को सर्वोत्कृष्ट मानते हैं । याज्ञवल्क्य ( ३।५६) की टीका मिताक्षरा ने इन तीनों सिद्धान्तों का विवेचन किया है और कहा है कि प्रत्येक मत को वैदिक समर्थन प्राप्त है तथा इनमें से कोई भी मत व्यवहार में लाया जा सकता है। 'आश्रम' शब्द 'श्रम्' से बना है ( आ श्राम्यन्ति अस्मिन् इति आश्रमः) अर्थात् एक ऐसा जीवन स्तर जिसमें व्यक्ति खूब श्रम करता है। Jain Education International आश्रम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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