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धर्मशास्त्र का इतिहास हैं। किन्तु इतना स्पष्ट है कि देवलस्मृति तथा निबन्धकारों ने उन लोगों की परिशुद्धि की बात चला दी है, जो कभी हिन्दू थे, किन्तु दुर्भाग् के चक्र में पड़कर म्लेच्छों के चंगुल में अपना प्रिय धर्म खो बैठे थे।
पुनः उपनयन कुछ दशाओं में पुनः उपनयम की व्यवस्था की गयी है, यथा जब कोई अपने कुल के वेद (जैसे ऋग्वेद) का अध्ययन कर लेता है, और दूसरे वेद (जैसे यजुर्वेद) का अध्ययन करना चाहता है तो उसे पुनः उपनयन करना पड़ेगा। आश्वलायनगृहा० (श२२०२२-२६) के अनुसार पुनरुपनयन में चौलकर्म एवं मेघाजनन नहीं भी किये जा सकते, परिदान (देवताओं को समर्पण) एवं समय को कोई निश्चित विधि नहीं है; कमी भी पुनरुपनयन किया जा सकता है। गायत्री के स्थान पर केवल "तत्सवितुर्वृणीमहे०" (ऋग्वेद ५१८२॥१) कहा जाना चाहिए। इस विषय पर कुछ विभिन्न मत भी हैं, जिन्हें स्थानाभाव से यहां नहीं दिया जा रहा है। पुनरुपनयन के कई प्रकार हैं। एक प्रकार का वर्णन ऊपर हो चुका। दूसरा प्रकार वह है जो कुछ कारणों से आवश्यक मान लिया जाता है, यथा पहले उपनयन में भ्रम से तिथि त्रुटिपूर्ण हो गयी, उस दिन अनध्याय या, तथा भूल से कुछ बातें छूट गयीं। ऐसी स्थिति में दूसरी बार उपनयन कर देना आवश्यक माना गया है। तीसरा उपनयन वह है जो किसी भयानक पाप या त्रुटि को दूर करने या प्रायश्चित्त के लिए किया जाता है। गीतम (२३३२-५) ने तप्तकृच्छ्र एवं पुनरुपनयन की व्यवस्था ऐसे लोगों के लिए की है जो सुरापान के अपराधी हैं, जिन्होंने श्रुटि से मानव-मूत्र, मल, वीर्य, जंगली पशुओं, ऊँटों, गदहों, ग्राम के मुरगों तथा ग्राम-शूकरों का मांस सेवन कर लिया हो (दखिए वसिष्ठ २३१३०, बौधायनधर्म० २।१।२५ एवं २९, मनु० ५।९१, विष्णुधर्म० २२।८६ आदि)। कहीं-कहीं विदेश गमन पर भी पुनरुपनयन की व्यवस्था पायो जाती है (बौ० गृ० परिभाषा मूत्र ११२।५-६)। वैखानस स्मृति (६।९-१०) में तथा पैठीनसि में भी पुनरुपनयन की व्यवस्था है। यदि कोई प्रौढ (बड़ी अवस्था का व्यक्ति) भेड़, गदही, ऊँटनी या नारी का दूध पी ले तो उसे पुनरुपनयन करना पड़ता था। कभी-कभी इसके साथ प्राजापत्य प्रायश्चित्त भी करना पड़ता था।
अनध्याय (वेदाध्ययन की छुट्टी या बन्दी) कई परिस्थितियों में वेदाध्ययन बन्द कर दिया जाता था। तैत्तिरीयारण्यक (२०१५) में अध्ययनकर्ता एवं स्थान की अपवित्रता को अनध्याय का कारण बताया गया है। शतपथब्राह्मण (११।५।६।९) ने बहुत-सी उन स्थितियों का वर्णन किया है जिनमें अनध्याय होता है, किन्तु पढ़े हुए पाठों का दुहराया जाना होता रहता है। अन्धड़, बिजलो की बमक, मेघगर्जन एवं वचपात के समय मी ब्रह्मयज्ञ होता रहना चाहिए, जिससे कि “वषट्कार'व्यर्थ न जाय । आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।४।१२॥३) ने शतपथ ब्राह्मण के उद्धरण द्वारा बताया है कि वेदाध्ययन को ब्रह्मयज्ञ कहा जाता है, जब मेघगन होता है, बिजली चमकती है, वज्रपात होता है, जब अन्धड़-तूफान चलता है तो ये सब उसके वषट्कार कहे जाते हैं। ऐतरेयारण्यक (५।३।३) के अनुसार जब वर्षा ऋतु के न रहने पर वर्षा हो तो तीन रात्रियों तक वेदाध्ययन बन्द कर देना चाहिए।
८३. वषट् या 'स्वाहा' शब्द का उच्चारण देवता के लिए आहुति देते समय किया जाता है। प्रम-गर्जन एवं विद्युत् ब्रह्मया के वषट्कार कहे जाते हैं। जिस प्रकार वषट् शन के उच्चारण के साथ माहुति दी जाती है, उसी प्रकार धम-गर्जन के साथ साझया के रूप में किसी-न-किसी बैदिक मन्त्र का पाठ करते रहना चाहिए।
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