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________________ ब्रह्मचारीकेत २५१ पढ़ाई पर बहुत कम बल दिया जाता था, (४) अनुशासन कठोर एवं नीरस था। बहुत-से दोष जाति-व्यवस्था के कारण थे, क्योंकि जाति-विभाजन के फलस्वरूप विशिष्ट जातियों को विशिष्ट काम करने पड़ते थे। चार वेदव्रत गौतम (८।१५) द्वारा वर्णित संस्कार-संख्या में चार वेद-व्रत नामक संस्कार भी हैं। बहुत-सी स्मृतियों ने सोलह संस्कारों में इनकी भी गणना की है। गृह्यसूत्रों में इनके नाम एवं विधियों के विषय में बहुत विभिन्नता पायी जाती है। पारस्करगृह्यसूत्र में इनकी चर्चा नहीं हुई है। यहां हम संक्षेप में इन चार वेदव्रतों का वर्णन उपस्थित करेंगे। आश्वलायनस्मृति (पद्य में) के अनुसार चार वेद-व्रत ये हैं--(९) महानाम्नी व्रत, (२) महावत, (ऐतरेयारण्यक १ एवं ५), (३) उपनिषद्-प्रत एवं (४) गोदान । आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।२२।२०) के अनुसार व्रतों में चौल कर्म से परिदान तक के सभी कृत्य जो उपनयन के समय किये जाते हैं, प्रत्येक व्रत के समय दुहराये जाते हैं। शांखायनगृह्यसूत्र (२।११-१२) के अनुसार पवित्र गायत्री से दीक्षित होने के उपरान्त चार व्रत किये जाते हैं, यथा शुक्रिय (जो वेद के प्रधान भाग के अध्ययन के पूर्व किया जाता है), शाक्वर, वातिक एवं औपनिषद (अन्तिम तीन ऐतरेयारण्यक के विभिन्न भागों के अध्ययन के पूर्व सम्पादित होते हैं)। इनमें शुक्रिय व्रत ३ या १२ दिन या १ वर्ष तक चलता था तथा अन्य तीन क्रम से वर्ष-वर्ष भर किये जाते थे (शांखायनगृ० २०११, १०-१२)। अन्तिम तीन व्रतों के आरम्भ में अलग-अलग उपनयन किया जाता था तथा इसके उपरान्त उद्दीक्षणिका नामक कृत्य किया जाता था। 'उद्दीक्षणिका' का तात्पर्य है आरम्भिक व्रतों को छोड़ देना। आरण्यक का अध्ययन गांव के बाहर वन में किया जाता था। मनु (२।१७४) के अनुसार इन चारों व्रतों में प्रत्येक व्रत के आरम्भ में ब्रह्मचारी को नवीन मृगचर्म, यज्ञोपवीत एवं मेखला धारण करनी पड़ती थी। गोमिलगृह्यसूत्र (३।१।२६-३१), जो सामवेद से सम्बन्धित हैं, गोवानिक, वातिक, आदित्य, औपनिषद, ज्येष्ठसामिक नामक व्रतों का वर्णन करता है जिनमें प्रत्येक एक वर्ष तक चलता है। गोदान व्रत का सम्बन्ध गोदान संस्कार (जिसका वर्णन हम आगे पढ़ेंगे) से है। इस कृत्य में सिर, दाढ़ी-मूंछे मुड़ा ली जाती हैं, झूठ, क्रोध, सम्भोग, गन्ध, नाच, गान, काजल, मधु, मांस आदि का परित्याग किया जाता है और गांव में जूता नहीं पहना जाता है। गोभिल के अनुसार मेखला-धारण, भोजन की भिक्षा, दण्ड लेना, प्रतिदिन स्नान, समिधा देना. गुरुचरण वन्दन (प्रातःकाल) आदि सभी व्रतों में किये जाते हैं। गोदानिक व्रत में सामवेद के पूर्वाचिक (अग्नि, इन्द्र एवं सोम पवमान के लिए लिखे गये मन्त्रों के संग्रह) का आरम्भ किया जाता था। वातिक से आरण्यक (शुक्रिय अंश को छोड़कर) का आरम्भ होता था। इसी प्रकार आदित्य से शुक्रिय का, औपनिषद से उपनिषद्-ब्राह्मण एवं ज्येष्ठ-सामिक से आज्य-दोह का आरम्भ किया जाता था। आगे के विस्तार में पड़ना यहाँ आवश्यक नहीं है। बौधायनगृह्य० (३।२।४) के अनुसार कुछ ब्राह्मण-भागों (कृष्ण यजुर्वेदीय) के अध्ययन के पूर्व एक वर्ष तक शुक्रिय, औपनिषद, गोदान एवं सम्मित नामक व्रत किये जाते थे, जिनका वर्णन यहाँ अनावश्यक है। संस्कारकौस्तुभ ने महानाम्नी व्रत, महावत, उपनिषद-व्रत एवं गोदान व्रत का विस्तार के साथ वर्णन किया है। क्रमशः इन व्रतों का नामोल्लेख होना बन्द हो गया और नध्य काल के लेखकों ने इनके विषय में लिखना छोड़ दिया। ___ यदि कोई विद्यार्थी विशिष्ट व्रतों को नहीं करता था, तो उसे प्राजापत्य नामक तप ३ या ६ या १२ बार करके प्रायश्चित्त करना पड़ता था। यदि ब्रह्मचारी अपने प्रतिदिन के कर्तव्याचार में गड़बड़ी करता था तथा शौच, आचमन, सन्ध्या-प्रार्थना, दर्भ-प्रयोग, भिक्षा, समिधा, शूद्र से दूर रहना, वस्त्र-धारण, लॅगोटी, यज्ञोपवीत, मेखला, दण्ड एवं मृगचर्म धारण करना, दिन में न सोना, छत्र न धारण करना, जूता न पहनना, माला न धारण करना, आमोदपूर्ण स्नान से दूर रहना, चन्दन का प्रयोग न करना, काजल न लगाना, जुआ से दूर रहना, नाच, संगीत आदि से दूर रहना, नास्तिकों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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