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________________ अध्ययन-विषि २४३ यथा पारस्करगृह्यसूत्र (२।५) का कहना है कि ४८ वर्ष तक ब्रह्मचर्य धारण करना चाहिए और प्रत्येक वेद के अध्ययन में १२ वर्ष लगाने चाहिए (१२४४=४८ वर्ष)। इस विषय में ब्रौधायनगृह्यसूत्र (१।२।१-५) भी अवलोकनीय है। जैमिनि (१॥३॥३) पर शबर ने उन स्मृतियों की खिल्ली उड़ायी है जिन्होंने ४८ वर्ष की अवधि के लिए बल दिया है। किन्तु कुमारिल भट्ट ने शबर की भर्त्सना की है कि स्मृतियों ने जो कुछ कहा है वह श्रुतिविरुद्ध नहीं है, क्योंकि जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य के उपरान्त संन्यासी होना चाहते हैं, वे ४८ वर्ष तक पढ़ सकते हैं, इतना ही नहीं, बहुत-से लोग जीवन भर विद्यार्थी रहना चाहते हैं।" क्रमशः वैदिक साहित्य विशाल होता चला गया और ऋषियों ने उसकी सुरक्षा के लिए तीनों वणों के लिए यह एक कर्तव्य-सा बना दिया कि वे इस पूत साहित्य के संरक्षण एवं पालन में लगे रहें। अतः बहुत-से विकल्प रखे गये, यथा ४८ वर्षों तक सभी वेदों का अध्ययन, तीन वेदों का ३६ वर्षों तक, यदि व्यक्ति बहुत तीक्ष्ण बुद्धि का हो तो वह तीन वेदों को १८ या ९ वर्षों में ही समाप्त कर सकता है, या वह इतना समय अवश्य लगाये कि एक वेद का या कुछ उसमें अधिक का ज्ञान प्राप्त कर सके, देखिए मनु (३।१-२) एवं याज्ञवल्क्य (११३६ एवं ५२)। सबके लिए १२ वर्षों तक वेदाध्ययन सम्भव नहीं था, अतः मारद्वाजगृह्यसूत्र (११९) ने विकल्प से लिखा है कि वेदाध्ययन गोदान कृत्य तक (१६वें वर्ष में गोदान होता था, इसके विषय में हम आगे पढ़ेंगे) होना चाहिए। आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।२२।३-४) के मत से १२ वर्षों तक या जब तक सम्भव हो वेदाध्ययन करना चाहए। हरदत्त ने आपस्तम्बधर्म० (१।१।२।१६) की व्याख्या करते समय आपस्तम्बधर्म० (१।१।२।१२-१६ एवं १।११।३।१) तथा मनु (३१) के निचोड़ को उपस्थित करते हुए कहा है कि प्रत्येक ब्रह्मचारी को कम-से-कम तीन वर्ष प्रत्येक वेद के पढ़ने में लगाने चाहिए। तीनों उच्च वर्गों के लिए वेदाध्ययन तो अत्यन्त महत्वपूर्ण कर्तव्य था ही, साथ-ही-साथ वैदिक यज्ञों के लिए भी वेदाध्ययन आवश्यक ठहराया गया था। जैमिनि के अनुसार वही व्यक्ति वैदिक यज्ञ के योग्य है जो यज्ञ-सम्बन्धी अंश का ज्ञाता हो। अध्ययन के विषय वेदाध्ययन का तात्पर्य है मन्त्रों तथा विशिष्ट शाखा या शाखाओं के ब्राह्मण-भाग का अध्ययन । वेद को शाश्वत एवं अपौरुषेय माना गया है। सभी धर्मशास्त्रकारों ने वेद को अनादि एवं शाश्वत माना है । वेदान्तसूत्र (१।३।२८२९) के अनुसार वेद शाश्वत है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (देवों सहित) वेद से ही प्रसूत हैं (देखिए मनु ११२१, शान्तिपर्व २३३।२४ आदि)। बृहदारण्यकोपनिषद् (४।५।११) के अनुसार वेद परमात्मा के श्वास हैं। इसी उपनिषद् (१।२।५) में आया है कि प्रजापति ने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, यज्ञों आदि का निर्माण किया है। श्वेताश्वतरोपनिषद् ७४. उपनयन अधिकतर गर्भाधान से ८ वर्ष की अवस्था में होता था। यदि ब्रह्मचर्य (विद्यार्थी जीवन) ४८ वर्षों तक चलेगा तो उस समय व्यक्ति की अवस्था ५६ (४८. ८) वर्ष होगी। केवल गृहस्थ लोग ही श्रेत अग्निहोत्र कर सकते थे। यदि कोई ५६ वर्ष उपरान्त विवाह करे, तो उसके बाल सफेद होते रहेंगे और वह इस प्रकार स्मृति-नियम को मानता हुआ वैदिक आदेश के विरोध में चला जायगा। स्मृति एवं श्रुति के विरोध में स्मृति अस्वीकृत होती है यह जैमिनि (१॥३॥३) का कहना है। इस पर शबर का भाष्य है-अष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि 'वेदब्रह्मचर्यचरणं जातपुत्रः कृष्णकेशोग्नीनादधीत इत्यनेन विरुखम् । अपुंस्त्वं प्रच्छादयन्तश्चाष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि वेदब्रह्मचर्य चरितवन्तः । तत एषा स्मृतिरित्यवगम्यते ।' जैमिनि (१॥३॥४, पृ० १८६) पर शबर। देखिए तन्त्रवातिक, पृ० १९२-१९३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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