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जिस प्रकार वेदाध्ययन ब्राह्मण का एक कर्तव्य था, उसी प्रकार पढ़ाना भी एक कर्तव्य था। अध्यापन-कार्य के लिए प्रार्थना किये जाने पर जो मुकर जाता था वह विफल माना जाता था। जब सत्यकाम जाबाल ने अपने शिष्य उपकोशल को लगातार १२ वर्ष तक सेवा करने पर भी नहीं पढ़ाया तो उनकी स्त्री ने उनकी मर्त्सना की (छान्दोग्य० ४।१०।१-२)। प्रश्नोपनिषद् (६३१) ने लिखा है कि जो गुरु अपना ज्ञान नहीं बांटता वह सूख जाता है। इस विषय में आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।४।१४।२-३ एवं १।२।८।२५-२८) ने विस्तार के साथ लिखा है। द्रोणपर्व (५०१२१) में भी शिष्य की कोटि पुत्र के उपरान्त मानी गयी है। यदि आचार्य साल भर ठहर जाने के उपरान्त भी शिष्य को नहीं पढ़ाता तो उसे शिष्य के सारे पाप भुगतने पड़ते थे। ऐसे आचार्य त्याज्य माने गये हैं।
शिष्यों के गुणों के विषय में स्मृतियों ने नियमों का विधान किया है। निरुक्त (२१४) द्वारा उद्धृत विद्यासूक्त में आया है कि जो शिष्य विद्या को घृणा की दृष्टि से देखे, कुटिल एवं असंयमी हो ऐसे शिष्य को विद्या-ज्ञान नहीं देना चाहिए, किन्तु जो पवित्र, ध्यानमग्न, बुद्धिमान्, ब्रह्मचारी, गुरु के प्रति सत्य हो तथा जो अपनी विद्या की रक्षा धनकोष की भाँति करे उसे शिक्षा देनी चाहिए।" मनु (२११०९ एवं ११२) के अनुसार १० प्रकार के व्यक्ति शिक्षण प्राप्त करने योग्य हैं---गुरु-पुत्र, गुरुसेवी शिष्य, जो बदले में ज्ञान दे सके, धर्मज्ञानी या जो मन-देह से पवित्र हो, सत्यवादी, जो अध्ययन करने एवं धारण करने में समर्थ हो, जो शिक्षण के लिए धन दे सके, जो व्यवस्थित मन का हो और जो निकटसम्बन्धी हो। याज्ञवल्क्य (१।२८) ने उपर्युक्तों के साथ कुछ और गुण भी जोड़े हैं, यथा कृतज्ञ, गुरु से घृणा न करने वाला या गुरु के प्रति असत्य न होने वाला, स्वस्थ तथा व्यर्थ का छिद्रान्वेषण न करगे वाला। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१। २।१९) के अनुसार ब्रह्मचारी को सदा अपने गुरु पर आश्रित एवं उनके नियन्त्रण के भीतर रहना चाहिए, उसे गुरु को छोड़ किसी अन्य के पास नहीं रहना चाहिए । यही बात नारद ने भी कही है। बहुत प्राचीन काल से ही यह बात प्रचलित सी रही है कि विद्यार्थी गुरु के पशुओं को चराये (छान्दोग्य० ४।४।५), भिक्षा माँगे और गुरु की उसको जानकारी करा दे (वही, ४।३।५), गुरु की पवित्र अग्नि की रक्षा करे तथा गुरु-कार्य के सम्पादन के उपरान्त जो समय मिले उसे वेदाध्ययन में लगाये (छान्दोग्य० ८।१५।१)।
उपर्यक्त बातों के अतिरिक्त कुछ अन्य बातें हैं जिन्हें संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। गौतम (२०१३, १४,१८,१९,२२,२३,२५) का कहना है कि विद्यार्थी को असत्य माषण नहीं करना चाहिए, प्रति दिन स्नान करना चाहिए, सूर्य की ओर नहीं देखना चाहिए तथा मधु-सेवन, मांस, इत्र (गंध), पुष्प-सेवन, दिन-शयन, तेल-मर्दन, अंजन, यानयात्रा, उपानह (जूता आदि) पहनना, छाता लगाना, प्रेम-व्यवहार, क्रोध, लालच, मोह, व्यर्थ विवाद, वाद्ययन्त्र-वादन, गर्म जल में आनन्ददायक स्नान, बड़ी सावधानी से दाँत स्वच्छ करना, मन की उल्लासपूर्ण स्थिति, नाच, गान, दूसरों की मर्त्सना, भयावह स्नान, नारी को घूरना या युवा नारियों को छूना, जुआ, क्षुद्र पुरुष की सेवा (नीच कार्य करना), पशु-हनन, अश्लील बातचीत, आसव-सेवन आदि से दूर रहना चाहिए। मनु (२।१९८ एवं १८०-१८१) का कहना है
६०. असूयकायान जवेऽयताय न माज्या वीर्यवती यया स्याम् । यमेवविद्याः शुचिमप्रमत्त मेधाविनं ब्रह्मचर्योपपन्नम् । यस्ते न ब्रोकतमन्चनाह तस्मै मा ब्रूया निषिपाय ब्रह्मन् ॥ निरुक्त २।४ (वसिष्ठ० २६८-८ विष्णुधर्म० २९।९-१०) । मनु (२३११४-११५) भी इसके बहुत समान हैं।
६१. न ब्रह्मचारिणो विद्यार्थस्य परोपवासोऽपि आचार्याधीनः स्यादन्यत्र पतनीयेम्यः। हितकारी गुरोरप्रतिलोमयत्वाचा। आप०प० २१२॥१७ एवं १९-२०; 'अस्वतन्त्रः स्मृतः शिष्य आचार्य तु स्वतन्त्रता।'नारद (ऋगादान, ३३)।
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