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________________ २३४ धर्मशास्त्र का इतिहास कुछ लोगों के मत से गुरु को “जाओ, अब हम समाप्त करें" कहना चाहिए। मनु (२।७०-७४), गौतम (१।४९-५८) एवं गोपथ ब्राह्मण (११३१) को भी इस विषय में देख लेना चाहिए। थोड़े-बहुत अंतर के साथ बातें एक-सी ही हैं। द्विजातियों का प्रथम कर्तव्य वेदाध्ययन था। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३।१०-११) के काल में भी वैदिक साहित्य बहुत बड़ा था, जैसा कि इन्द्र एवं भरद्वाज की कहानी से ज्ञात होता है। भरद्वाज ७५ वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचारी थे (पढ़ते रहे), तब भी इन्द्र ने कहा कि इतना पढ़ लेने पर भी अथाह वेद का बहुत थोड़ा भाग तुमने (तीन पर्वतों की तीन मुट्ठियाँ मात्र) पढ़ा है। मनु (२।१६५) ने एक आदर्श उपस्थित किया है कि प्रत्येक द्विजाति को उपनिषदों के साथ सम्पूर्ण वेद का अध्ययन करना चाहिए। शतपथब्राह्मण (११।५।७) की वेदाध्ययन-स्तुति (स्वाध्याय करने का आदेश) (स्वाध्यायोऽध्येतव्यः, अर्थात् वेद अवश्य पढ़ना चाहिए) हम अधिकतर देखते हैं। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१२४! १२।१ एवं ३) ने तैत्तिरीयारण्यक (२॥१४॥३) एवं शतपथब्राह्मण (१११५।६।८) को उद्धृत किया है। महाभाष्य (भाग १, पृ०१) ने एक वैदिक उद्धरण दिया है-- "ब्राह्मण को बिना किसी प्रयोजन के धर्म एवं देदांगों के साथ वेद का अध्ययन करना चाहिए।” महाभारत (शान्तिपर्व २३९।१३) का कहना है कि वे पढ़ लेने से ब्राहाण अपना कर्तव्य कर लेता है। याज्ञवल्क्य (११४०) का कहना है कि वेद द्विजातियों को सोच कल्याण देता जिसके स्वरूप दे यज्ञ, तप एवं संस्कार को भली-भांति समझ सकते हैं और कर सकते हैं। महाभाष्य (भाग १, पृ० २) में चारों वेदों के परम्परागत विस्तार-क्रम पाये जाते हैं, यथा यजुर्वेद में १०१ शाखाएं हैं, सामवेद में १०००, ऋग्वेद मे २१ एवं अथर्ववेद में ९। जीवन छोटा होना है, अत: गौतम (२०५१), वसिष्ठधर्म ० (१३), मनु (३।२) गाजवल्क्य (२०५२) एवं अन्य लोगों ने केवल एक वेद के अध्ययन का ही आदेश दिया है। अपना वेद पढ़ लेने के उपरान्त अन्य शाखाएँ एवं वेद पढ़े जा सकते हैं। अधिकांश स्मृतियों ने यही आदेशित किया है कि अपने पूर्वजों की शाखा के वेद का अध्ययन एवं उसी के अनुसार धार्मिक कृत्य भी करने चाहिए। जो अपनी वंशपरम्परागत शाखा का वेद नहीं पड़कर अन्य शाखा पड़ता है उसे "शाखारण्ड" कहा जाता है। शाखारण्ड की धार्मिक क्रियाएँ विफल होती हैं। किन्तु अपनी शाखा में न पायी जाने वाली क्रिया अन्य शाखा से सीखी जा सकती है। अग्निहोत्र का उदाहरण यहाँ पर्याप्त है, क्योंकि यह सभी शाखाओ में नहीं पाया जाता, किन्तु इसे करते सभी हैं। गुरुओं का निवास प्रायः एक ही स्थान पर होता था। किन्तु प्राचीन भारत में भी वे एक देश से दूसरे देश में जाते हुए पाये गये हैं। कौषीतकोब्राह्मणोपनिषद् (४१) में हम विख्यात बालाकि गार्य को उशीनर, मत्स्य, कुरु-पंचाल एवं काशि-विदेह में भ्रमण करते हुए पाते हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् (३३१) में भुज्य लाट्यायनि याज्ञवल्क्य से कहते हैं कि वे तथा अन्य लोग अध्ययन के लिए मद्र देश में घूमते रहे। शिष्यगण बहुधा एक ही गुरु के महाँ.. रहते थे, किन्तु वे जिस प्रकार पानी ढाल की ओर अवश्य बह जाता है उसी प्रकार विख्यात गुरुओं के यहाँ दौड़कर चले भी जाते थे। ऐसे विद्यार्थी जो इस आचार्य से उस आचार्य तक भागा करते थे, उन्हें 'तीर्थकाक' कहा गया है (महाभाष्य, भाग १, पृ० ३९१, पाणिनि २१११४१)। ५८. तपः स्वाध्याय इति ब्राह्मणम्।...अथापि वाजसनेयिब्राह्मणम्। ब्रह्मयज्ञो ह वा एष यत्स्वाध्यायः । आप० ध० सूत्र १।४।१२।१ एवं ३; मिलाइए मनु (२०१६६) वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते । दक्ष (२॥३३) ने भी यही बात कही है। 'अधीयत इत्यध्यायः वेदः। स्वस्थाध्यायः स्वाध्यायः स्वपरंपरागता शाखेत्यर्थः। संस्कार प्रकाश, पृ० ५०४। ५९. यथापः प्रवता यन्ति यथा मासा अहर्जरम् । एवं मां ब्रह्मचारिणो घातरायन्तु सर्वतः ॥ तैत्तिरीयोपनिषद् १।४।३; यहाँ 'अहर्जर' का तात्पर्य है संवत्सर (वर्ष)। Jain Education International Jain Education International For Private & Personal use only. www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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