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२२१ स्वः” के साय) दुहरायी जाती है और तब 'यज्ञोपवीतं परमं पवित्र' के साथ यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।
बौधायनगृह्यशेषसूत्र (२।८।१-१२) ने क्षत्रियों, वैश्यों, अम्बष्ठों एवं करणों (वैश्य एवं शूद्र नारी से उत्पन्न) के उपनयन संस्कार के कुछ अन्तरों पर प्रकाश डाला है, किन्तु उसके विस्तार में जाना यहाँ आवश्यक नहीं है।
अन्धे, बहरे, गूंगे आदि का उपनयन क्या अन्धे, बहरे, गूंगे, मूर्ख लोगों का उपनयन होता था? जैमिनि (६।१।४१-४२) के अनुसार अंगहीनों को अग्निहोत्र नहीं करना चाहिए, किन्तु यह अयोग्यता दोष न अच्छा हो सकने पर ही लागू होती है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१४।१), गौतम (२८।४१-४२), वसिष्ठ (१७१५२-५४), मनु (९।२०१), याज्ञवल्क्य (२ १४०-१४१), विष्णुधर्मसूत्र (१५।३२) के अनुसार जो नपुंसक, पतित, जन्म से अन्धा या बधिर हो, लूला लंगड़ा हो, जो असाध्य रोगों से पीड़ित हो उसे विभाजन के समय सम्पत्ति नहीं मिल सकती, हाँ उसके भरण-पोषण का प्रबन्ध होना चाहिए। किन्तु ऐसे लोग विवाह कर सकते थे। विना उपनयन के विवाह कैसे हो सकता है ? अतः स्पष्ट है; अंघों, बधिरों, गूगों आदि का उपनयन होता रहा होगा। बौधायनगृह्यशेषसूत्र (२।९) ने इन लोगों में कुछ के लिए अर्थात् बहरों, गूगों एवं मूों के लिए उपनयन की एक विशिष्ट पद्धति निकाली है । इन लोगों के विषय में सभिघा देना, प्रस्तर पर चढ़ना, वस्त्रधारण, मेखला-बन्धन, मृगचर्म एवं दण्ड लेना मौन रूप से होता है और बालक अपना नाम नहीं लेता, केवल आचार्य ही पक्व भोजन एवं घृत की आहुति देता है और सब मन्त्र मन ही मन पढ़ता है। सूत्र का कहना है कि यही विधि नपुंसक, अन्धे, पागल तथा मूर्छा, मिर्गी, कुष्ठ (श्वेत या कृष्ण) आदि रोगों से पीड़ित व्यक्तियों के लिए भी लागू होती है। निर्णयसिन्धु ने प्रयोगपारिजात में लिखित ब्रह्मपुराण के कथन को उद्धृत कर उपर्युक्त बात ही लिखी है। संस्कारप्रकाश (पृ० ३९९-४०१) एवं गोपीनाथ की संस्काररत्नमाला (पृ० २७३-७४) में भी यही बात पायी जाती है। मनु (२।१७४), आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१३।१), मनु (१०५) याज्ञवल्क्य (११९० एवं ९२) ने स्पष्ट शब्दों में कुण्ड एवं गोलक सन्तानों के लिए भी उपर्युक्त व्यवस्था मानी है। कुण्ड वह सन्तान है जो पति के रहते किसी अन्य पुरुष से उत्पन्न होती है तथा गोलक पति की मृत्यु के उपरान्त किसी अन्य पुरुष से उत्पन्न होता है। मनु ने कुण्डों एवं गोलकों को श्राद्ध के समय निमन्त्रित करना मना किया है (३।१५६)।
वर्णसंकरों के उपनयन के प्रश्न के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। मन (१०१४१) ने छः अनुलोमों को द्विजों की क्रियाओं के योग्य माना है। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य ११९२ एवं ९५) का कहना है कि माता की जाति के अनुसार ही अनुलोमों के कृत्य सम्पादित होने चाहिए और इन अनुलोमों से उत्पन्न वर्णसंकरों की सन्ताने भी उपनयन के योग्य ठहरती हैं। बौधायनगृह्यशेषसूत्र (२।८)ने क्षत्रियों, वैश्यों एवं वर्णसंकरों, यथा रथकारों, अम्बष्ठों आदि के लिए उपनयन-नियम लिखे हैं। मनु (४।४१) के अनुसार सभी प्रतिलोम शूद्र हैं, यहाँ तक कि ब्राह्मण पुरुष एवं शूद्र नारी की सन्तान यद्यपि अनुलोम है किन्तु प्रतिलोम के समान ही है। शूद्र केवल एक जाति है द्विजाति नहीं (गौतम १०५१)। प्रतिलोमों (शूद्रों) का भी उपनयन नहीं किया जाता।
३९. षटजरल्लीबान्धव्यसनिध्याषितोन्मत्तहीनांगदधिराधिकांगामयाव्यपस्मारिश्वित्रिकुष्ठिवीर्घरोगिणश्चंतेन व्याख्याता इत्येके । बौधायनगृह्यशेषसूत्र २।९।१४।
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