________________
२२०
धर्मशास्त्र का इतिहास करके मनु (२०६६) ने यह निष्कर्ष निकाला है “ये कृत्य नारियों के लिए भी ज्यों-के-त्यों किये जाते थे, किन्तु बिना मन्त्रों के, परन्तु केवल विवाह के संस्कार में स्त्रियों के लिए वैदिक मन्त्रों का प्रयोग होता था।" इससे स्पष्ट है कि मनु के काल में स्त्रियों का उपनयन नहीं होता था, किन्तु प्राचीन काल में यह होता था, यह स्पष्ट हो जाता है। बाणभट्ट की कादम्बरी में महाश्वेता (जो तप कर रही थी) के बारे में ऐसा आया है कि उसका शरीर ब्रह्मसूत्र पहनने के कारण पवित्र हो गया था (ब्रह्मसत्रेण पवित्रीकृतकायाम)। यहाँ ब्रह्मसूत्र का अर्थ है यज्ञोपवीत। संस्कारप्रकाश में ऐसा आया है कि परमात्मा यज्ञ कहलाता है, और यज्ञोपवीत नाम इसलिए पडा कि यह परमात्मा को मिलाने वाला है (यह उनके लिए किये गये यज्ञ में प्रयुक्त होता है)।
तीनों वर्गों के लोगों के लिए यज्ञोपवीत की व्यवस्था थी, किन्तु क्षत्रियों एवं वैश्यों ने इसके प्रयोग को सर्वथा छोड़ दिया या सदा पहनना न चाहा, अतः बहुत पहले से ब्राह्मणों के लिए ही यज्ञोपवीत की विशिष्ट मान्यता थी। कालिदास ने रघुवंश (११।६४) में कुपित परशुराम के वर्णन में लिखा है कि उपवीत तो पितृ-परम्परा से उन्हें मिला है किन्तु धनुष धारण करना माता के वंश से (क्योंकि माता क्षत्रिय वंश की थी)। इस उक्ति से स्पष्ट है कि क्षत्रिय लोग उपवीत सदा नहीं पहनते थे और उपवीत ब्राह्मणों के लिए एक विशिष्ट लक्षण हो गया था। वेणीसंहार (३) में कर्ण के इस कथन पर कि वह अश्वत्थामा के पैर को उसके ब्राह्मण होने के नाते नहीं काटेगा, अश्वत्थामा ने कहा; मैं अपनी जाति छोड़ता हूँ।" (लो मैं अपना उपवीत छोड़ता हूँ), इससे स्पष्ट होता है कि वेणीसंहार (कम-से-कम ६०० ई०) के समय में यज्ञोपवीत ब्राह्मणजाति का एक विशिष्ट लक्षण हो गया था।
संस्काररत्नमाला में उद्धृत बौधायनसूत्र के अनुसार किसी ब्राह्मण या उसकी कुमारी कन्या द्वारा काता हुआ सूत लाया जाता है, तब “भूः" के साथ किसी व्यक्ति द्वारा उसे ९६ अंगुल नाप लिया जाता है, इसी प्रकार पुनः दो बार "भुवः" एवं "स्वः" के साथ ९६ अंगुल नापा जाता है। तब इस प्रकार नापा हुआ सूत पलाश की पत्ती पर रखा जाता है और तीन मन्त्रों 'आपो हि ष्ठा' (ऋग्वेद १०।९।१-३), चार मंत्रों "हिरण्यवर्णाः' (तैत्तिरीयसंहिता ५।६.१ एवं अथर्ववेद १।३३।१-४) एवं पवमानः सुवर्जनः' (तैत्तिरीय ब्राह्मण १।४।८) से प्रारम्भ होने वाले अनुवाक तथा गायत्री के साथ उस पर जल छिड़का जाता है। इसके उपरान्त बाँयें हाथ में सूत लेकर दोनों हाथों से तीन बार ताली के रूप में ठोक दिया जाता है, तब वह 'भूरग्निं च' (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।१०।२) के तीन मन्त्रों के साथ तिहरा मोड़ा जाता है। इसके उपरान्त 'भूर्भुवः स्वश्चन्द्रमस च' (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।१०।२) के पठन के साथ गाँठ बाँधी जाती है। नौ तन्तओं के साथ नौ देवताओं का आवाहन किया जाता है। तब 'देवस्य त्वा' नामक मन्त्र के साथ उपवीत उठा लिया जाता है। फिर 'उद्वयं तमसस्परि' (ऋग्वेद ११५०।१०) के साथ उसे सूर्य को दिखाया जाता है। इसके उपरान्त 'यज्ञोपवीतं परम पवित्र' के साथ यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। इसके उपरान्त गायत्री का जप करके आचमन किया जाता है।
आधुनिक काल में पुराना हो जाने पर या अशुद्ध हो जाने, कट या टूट जाने पर जब नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है तो संक्षिप्त कृत्य इस प्रकार का होता है-यज्ञोपवीत पर तीन 'आपो हिष्ठा' (ऋग्वेद १०।९।१-३) मन्त्रों के साथ जल छिड़का जाता है। इसके उपरान्त दस बार गायत्री (प्रति बार व्याहृतियों, अर्थात "ओम् भूर्भुवः
३६. यज्ञार्यः परमात्मा य उच्यते चैव होतृभिः। उपवीतं ततोऽस्येवं तत्स्यायनोपवीतकम् ॥ सं००, १० ४१९ । ३७. पिश्यमंशमुपवीतलक्षणं मातृकं च धनुरूजितं वषत्। रघुवंश (११६६४)। ३८. जात्या चेववध्योऽहमियं सा जातिः परित्यक्ता। वेणीसंहार, ३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org