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धर्मशास्त्र का इतिहास गोभिलगृह्यसूत्र (११२।२-४) में समझाये गये हैं, यथा “दाहिने हाथ को उठाकर, सिर को (उपवीत के) बीच में डालकर वह सूत्र को बाँयें कंधे पर इस प्रकार लटकाता है कि वह दाहिनी ओर लटकता है; इस प्रकार वह यज्ञोपवीती हो जाता है। बाँयें हाथ को निकालकर (उपवीत के) बीच में सिर को डालकर वह सूत्र को दाहिने कंधे पर इस प्रकार रखता है कि वह बाँयीं ओर लटकता है, इस प्रकार वह प्राचीनावीती हो जाता है। जब पितरों को पिण्डदान किया जाता है, तभी प्राचीनावीती हुआ जाता है।" यही बात खादिर० (१११।८-९), मनु (२।६३), बौधायन-गृह्यपरिभाषा-सूत्र (२।२१७ एवं १०) तथा वैखानस (११५) में भी पायी जाती है। बौधायनगृह्यसूत्र (२।२।३) का कहना है-"जब यह कंधों पर रखा जाता है तो दोनों कंधे एवं छाती (हृदय के नीचे किन्तु नाभि के ऊपर) तक रहते हुए दोनों हाथों के अंगूठों से पकड़ा जाता है, इसे ही निवीत कहा जाता है। ऋषि-तर्पण में, संभोग में, बच्चों के संस्कारों के समय (किन्तु होम करते समय नहीं), मलमूत्र त्याग करते समय, शव ढोते समय, यानी केवल मनुष्यों के लिए किये जाने वाले कार्यों में निधीत का प्रयोग होता है। गरदन में लटकने वाले को ही निवीत कहते हैं।" निवात, प्राचीनावीत एवं उपवीत के विषय में शतपथब्राह्मण (२।४।२।१) भी अवलोकनीय है। यह बात जानने योग्य है कि उस समय इस ढंग से शरीर को परिघान से ढका जाता था, यज्ञोपवीत या निवीत या प्राचीनावीत को (सूत्र के रूप में) पहनने के ढंग का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता। इससे प्रकट होता है कि पुरुष लोग देवों को पूजा में परिधान धारण करते थे, न कि सूत्रों से बना हुआ कोई जनेऊ आदि पहनते थे। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३।१०।९) में आया है कि जब वाक् (वाणी) की देवी देवभाग गौतम के समक्ष उपस्थित हुई तो उन्होंने यज्ञोपवीत धारण किया और "नमो नमः" शब्द के साथ देवी के समक्ष गिर पड़े, अर्थात् झुककर या दण्डवत् गिरकर प्रणाम किया।"
तैत्तिरीय आरण्यक (२११) से पता चलता है कि प्राचीन काल में उपवीत के लिए काले हरिण का चर्म या वस्त्र उपयोग में लाया जाता था। ऐसा आया है--"जो यज्ञोपवीत धारण करके यज्ञ करता है उसका यज्ञ फैलता है, जो यज्ञोपवीत नहीं धारण करता उसका यज्ञ ऐसा नहीं होता, यज्ञोपवीत धारण करके, ब्राह्मण जो कुछ पढ़ता है, वह यज्ञ है। अतः अध्ययन, यज्ञ या आचार्य-कार्य करते समय यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। मृगचर्म या वस्त्र दाहिनी ओर धारण कर दाहिना हाथ उठाकर तथा बाँयाँ गिराकर ही यज्ञोपवीत धारण किया जाता है, जब यह ढंग उलट दिया जाता है तो इसे प्राचीनावीत कहते हैं और संवीत स्थिति मनुष्यों के लिए ही होती है।" स्पष्ट है कि यहाँ उपवीत के लिए कोई सूत्र नहीं है, प्रत्युत मृगचर्म या वस्त्र है। पराशरमाधवीय (माग १, पृ० १७३) ने उपर्युक्त कथन का एक भाग उद्धृत करते हुए लिखा है कि तैत्तिरीयारण्यक के अनुसार मृगचर्म या रुई के वस्त्र में से कोई एक धारण करने पर कोई उपवीती बन सकता है। कुछ सूत्रकारों एवं टीकाकारों से संकेत मिलता है कि उपवीत में वस्त्र का प्रयोग होता था। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।२।४।२२-२३) का कहना है कि गृहस्थ को उत्तरीय धारण करना चाहिए, किन्तु वस्त्र के अभाव में सूत्र भी उपयोग में लाये जा सकते हैं । इससे स्पष्ट है कि मौलिक रूप में उपवीत का तात्पर्य था ऊपरी वस्त्र, न कि केवल सूत्रों की डोरी। एक स्थान पर (२।८।१९।१२) इसी सूत्र ने यह भी लिखा है-"(जो श्राद्ध का भोजन खाये) उसे बायें कंधे पर उत्तरीय हालकर उसे दाहिनी ओर लटकाकर खाना चाहिए।" हरदत्त ने इसकी व्यास्या दो प्रकार से की है-(१) श्राद्ध-भोजन करते समय यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए अर्थात् उसे उत्तरीय बाय कंधे पर तथा दाहिने हाथ के नीचे लटकता हुआ रखना चाहिए : इसका एक तात्पर्य यह हुआ कि ब्राह्मण को आपस्तम्ब
२०. एतावति ह गौतमो यज्ञोपवीतं कृत्वा अधो निपपात नमो नम इति। सं० मा० ३।१०।९ । सायण का बहमा है.---"स्वकीयेन वस्त्रेण यज्ञोपवीतं कृत्वा।"
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