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________________ 13 २१५ प्रकाश पड़ जाय । आश्वलायन एवं आपस्तम्ब तथा कुछ अन्य सूत्रकारों ने जनेऊ के बारे में कुछ भी नहीं दिया है, किन्तु हिरण्यकेशि० ( ११२।६), भारद्वाज० (१/३) एवं मानव० ( १।२२।३) ने होम के पूर्व यज्ञोपवीत धारण करना बतलाया है। बौधायन० (२।५१७ ) का कहना है कि यज्ञोपवीत पाने के उपरान्त ही बटुक "यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।। " नागक अति प्रसिद्ध मन्त्रा उच्चारण करता है । वैखानस स्मार्त ( २/५ ) का कहना है कि आचार्य बटुक को उत्तरी देता है और "परीदं वासः' का उच्चारण करता है, पवित्र जनेऊ को "यज्ञोपवीतम्" मन्त्र के साथ तथा कृष्ण मृगचर्स को "मिवस्य चक्षुः " कहकर देता है । पारस्कर के टीकाकार कर्क एवं हरिहर के अनुसार मेखला बाँध लेने के उपरान्त बटुक को आचार्य यज्ञोपवीत देता है। यही बात संस्कारतत्त्व (पृष्ठ २३४ ) में भी पायी जाती है। संस्काररत्नमाला ने होम के पूर्व यज्ञोपवीत पहने को कहा है। यज्ञोपवीत के उद्गम एवं विकास के विषय में हम आगे पढ़ेंगे। इस अवसर पर धर्मशास्त्रकारों ने चौलकर्म कर लेने को कहा है। आरम्भिक काल में चौलकर्म स्वयं आचार्य करता था । निम्नलिखित विधियाँ भी ध्यान देने योग्य हैं उपनयन (क) आपस्तम्बगृह्यसूत्र ( १०१९), मानव० ( ११२३३१२), बौधायन० (२१५११५), खादिर० (२२४) एवं भारद्वाज ० ( ११८) ने वटुक को होम के उपरान्त अग्नि के उत्तर दाहिने पैर से प्रस्तर पर चढ़ने को कहा है। प्रस्तर पर पैर रखना दृढ निश्चय का द्योतक है। (ख) मानव ० ( १ | २२|३) एवं खादिर० (४१।१०) ने होम के उपरान्त "दधिक्राव्णो अकारिणम्" (ऋ० ४/३९।६, तैत्तिरीयसंहिता १|५|४|११ ) मंत्र को दुहराते हुए दघि तीन बार खाने को कहा है। (ग) पारस्करगृह्यसूत्र ( २।२), भारद्वाज० ( १७ ), आपस्तम्ब० ( २1१-४), आपस्तम्ब - मन्त्रपाठ (२२३॥ २७-३०), बौधायनगृ० ( २२ ५। २५ शाट्यायनक को उद्धृत कर ), मानव० ( ११२२२४ - ५ ) एवं खादिर० ( राम १२) के मत से बटुक से आचार्य उसका नाम पूछता है और वह बताता है। आचार्य उससे यह भी पूछता है "तुम किसके ब्रह्मचारी हो ?" सभी स्मृतियों में यह बात पायी जाती है कि उपनयन तीनों वर्णों में होता था । उपनयन-विधि के विषय में बहुत से भेद - विभेद हैं, जिनकी चर्चा करना यहाँ अनावश्यक है। कालान्तर के लेखकों ने मन्त्रों को जोड़-जोड़कर विस्तार बढ़ा दिया है। यज्ञोपवीत प्राचीन काल से अब तक यज्ञोपवीत का क्या इतिहास रहा है, इस पर थोड़ा सा लिख देना परम आवश्यक है। प्राचीनतम संकेत तैत्तिरीय संहिता (२/५/२/१ ) में मिलता है — "निवीत शब्द मनुष्यों, प्राचीनावीत पितरों एवं उपवीत देवताओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त होता है; वह जो उपवीत ढंग से अर्थात् बायें कंधे से लटकता है, अतः वह देवताओं के लिए संकेत करता है।" तैत्तिरीय ब्राह्मण ( ११६१८) में आया है -- "प्राचीनावीत ढंग से होकर वह दक्षिण की जोर आहुति देता है, क्योंकि पितरों के लिए कृत्य दक्षिण की ओर ही किये जाते हैं। इसके वितरीत उपवीत ढंग से उत्तर की ओर आहुति देनी चाहिए; देवता एवं पितर इसी प्रकार पूजित होते हैं।" निवीत, प्राचीनावीत एवं उपवीत शब्द १९. निवीतं मनुष्याणां प्राचीनावीतं पितृणामुपवीतं देवानाम् । उप व्ययते बेजलक्ष्ममेव तत्कुरुते । ले० सं० २५।११।१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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