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२१३ श्रवण एव रेवती अच्छे माने जाते हैं। विशिष्ट वेद वालों के लिए नक्षत्र - सम्बन्धी अन्य नियमों की चर्चा यहां नहीं की जा रही है। एक नियम यह है कि भरणी, कृत्तिका, मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, शततारका को छोड़कर सभी अन्य नक्षत्र सबके लिए अच्छे हैं। लड़के की कुण्डली के लिए चन्द्र एवं बृहस्पति ज्योतिष रूप से शक्तिशाली होने चाहिए। बृहस्पति का सम्बन्ध ज्ञान एवं सुख से है, अतः उपनयन के लिए उसकी परम महत्ता गायी गयी है। यदि बृहस्पति एवं शुक्र न दिखाई पड़ें तो उपनयन नहीं किया जा सकता । अन्य ज्योतिष सम्बन्धी नियमों का उद्घाटन यहाँ स्थानाभाव के कारण नहीं किया जायगा ।
उपनयन
वस्त्र
ब्रह्मचारी दो वस्त्र धारण करता था, जिनमें एक अधोभाग के लिए
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वासस् ) और दूसरा ऊपरी भाग के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य ब्रह्मचारी
( उत्तरीय) । आपस्तम्बधर्मसूत्र ( १|११२१३९ - १।१।३।१-२ ) के अनुसार के लिए वस्त्र क्रम से पटुआ के सूत का, सन के सूत का एवं मृगचर्म का होता था। कुछ धर्मशास्त्रकारों के मत से अधोभाग का वस्त्र रुई के सूत का (ब्राह्मणों के लिए लाल रंग, क्षत्रियों के लिए मजीठ रंग एवं वैश्यों के लिए हल्दी रंग ) होना चाहिए। वस्त्र के विषय में बहुत मतभेद है। " आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१।३।७ -८) ने सभी वर्णों के लिए भेड़ का चर्म (उत्तरीय के लिए) या कम्बल विकल्प रूप से स्वीकार कर लिया है।
अधोभाग या ऊपरी भाग के परिधान के विषय में ब्राह्मण-ग्रन्थों में भी संकेत मिलता है ( आपस्तम्बधर्मसूत्र १।१।३।९) । जो वैदिक ज्ञान बढ़ाना चाहे उसके अधोवस्त्र एवं उत्तरीय मृगचर्म के, जो सैनिक शक्ति चाहे उसके लिए रुई का वस्त्र और जो दोनों चाहे वह दोनों प्रकार के वस्त्रों का उपयोग करे। १६
दण्ड
tus किस वृक्ष का बनाया जाय, इस विषय में भी बहुत मतभेद रहा है। आश्वलायनगृह्य० ( १ | १९ | १३ एवं १/२०११) के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए क्रम से पलाश, उदुम्बर एवं बिल्व का दण्ड होना चाहिए, या कोई भी वर्ण इनमें से किसी एक का दण्ड बना सकता है। आपस्तम्बगृह्यसूत्र ( ११।१५-१६ ) के अनुसार ब्राह्मण क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए क्रम से पलाश, न्यग्रोध की शाखा (जिसका निचला भाग दण्ड का ऊपरी भाग माना जाय ) एवं बदर या उदुम्बर का दण्ड होना चाहिए। यही बात आपस्तम्बधर्मसूत्र ( १११/२/३८) में भी पायी जाती है। इसी प्रकार बहुत से मत हैं जिनका उद्घाटन अनावश्यक हैं (देखिए गौतम १।२१; बौधायनधर्मसूत्र २/५/१७ ; गौतम १।२२-२३ पारस्करगृह्यसूत्र २५ काठकगृह्यसूत्र ४१।२२; मनु २/४५ आदि) ।
१४. वासः । शाणीक्षौमाजिनानि । काषायं चंके वस्त्रमुपविशन्ति । मांजिष्ठं राजन्यस्य । हारिखं वैश्यस्य । आप० ष० १।१।२।३९-४१-१११।३।११-२; शुक्लमहतं वासो ब्राह्मणस्य, मांजिष्ठं क्षत्रियस्य । हारिनं कौशेयं वा वैश्यस्य । सर्वेषां वा तान्तवमरक्तम् । वसिष्ठ० ११०६४-६७ | देखिए पारस्कर (२१५) – ऐणेयमजनमुत्तरीयं ब्राह्मणस्य रौरवं राजन्यस्याजं गव्यं वा वैश्यस्य सर्वेषां वा गव्यमसति प्रधानत्वात् ।
१५. ब्रह्मवृद्धिमिच्छजिनान्येव वसीत क्षत्रवृद्धिमिच्छन्वस्त्राप्येवोभयवृद्धिमिच्छन्नुभयमिति हि ब्राह्मणम् । अजिनं त्वेवोत्तरं धारयेत् । आपस्तम्बधर्मसूत्र १।१।३।९-१० । मिलाइए भारद्वाजगृह्यसूत्र ( १११ ) -- यदजिनं धारयेदब्रह्मवर्चसवद्वासो धारयेत्सत्रं वर्षयेदुभयं धार्यमुभयोवृद्धया इति विज्ञायते; मिलाइए गोपथब्राह्मण (२२४) न तान्तवं बसीत यत तवं वस्ते क्षत्रं वर्धते न ब्रह्म तस्मात्तान्तवं न वसीत ब्रह्म वर्षतां मा क्षत्रमिति ।
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