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धर्मशास्त्र का इतिहास
(११) एवं गोमिल (२०१०) गृह्यसूत्र तथा याज्ञवल्क्य (१।१४), आपस्तम्बधर्मसूत्र (१११।१।१९) स्पष्ट कहते हैं कि वर्षों की गणना गर्भाधान से होनी चाहिए। यही बात महाभाष्य में भी है। पारस्करगृह्यसूत्र (२।२) के मत से उपनयन गर्भाधान या जन्म से आठवें वर्ष में होना चाहिए, किन्तु इस विषय में कुलधर्म का पालन भी करना चाहिए। याज्ञवल्क्य (१११४)ने भी कुलधर्म की बात चलायी है। शांखायनगृह्यसूत्र (२११११) ने गर्भाधान से ८वा या १०वां वर्ष, मानव (१२२११) ने ७वा या ९वाँ वर्ष, काठक (४१-३) ने तीनों वर्गों के लिए क्रम से ७वा, ९वा एवं १२वा वर्ष स्वीकृत किया है। कुछ स्मतियों ने कम अवस्था में ही उपनयन होना स्वीकार किया है, यथा गौतम (११६८) ने ५वा वर्ष या ९वाँ वर्ष, मनु (२०३७) ने ५वां (ब्राह्मण के लिए), ६ठा (क्षत्रिय के लिए) एवं ८वा (वैश्य के लिए) स्वीकृत किया है; किन्तु यह छूट केवल क्रम से आध्यात्मिक, सैनिक एवं धन-संग्रह की महत्ता के लिए ही दी गयी है। आध्यात्मिकता, लम्बी आयु एवं धन की अभिकांक्षा वाले ब्राह्मण पिता के लिए पुत्र का उपनयन गर्भाधान से ५३, ८३ एवं ९वें वर्ष में भी किया जा सकता है (वैखानस ३।३)। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१११।११२१) एवं बौधायन गृह्यसूत्र (२५) ने आध्यात्मिक महत्ता, लम्बी आयु, दीप्ति, पर्याप्त भोजन, शारीरिक बल एवं पशु के लिए कम से ७वां, ८वां, ९वां , १०वा, ११वां एवं १२वाँ वर्ष स्वीकृत किया है।
___ अतः जन्म से ८वां, ११वां एवं १२वाँ वर्ष क्रम में ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए प्रमुख समय माना जाता रहा है। ५वे वर्ष से ११वें वर्ष तक ब्राह्मणों के लिए गौण, ९वें वर्ष से १६ वर्ष तक क्षत्रियों के लिए गौण माना जाता रहा है। ब्राह्मणों के लिए १२वें से १६वें तक गौणतर काल तथा १६वें के उपरान्त गौंणतम काल माना गया है (देखिए संस्कारप्रकाश, पृ० ३४२)।
आपस्तम्बगृह्य एवं आपस्तम्बधर्म (११११११९), हिरण्यकेशिगृह्य० (१११) एवं वैखानस के मत स तीनों वर्गों के लिए कम से शुभ मुहूर्त पड़ते हैं वसन्त, ग्रीष्म एवं शरद् के दिन। भारद्वाज० (११) के अनुसार वसन्त ब्राह्मण के लिए, ग्रीष्म या हेमन्त क्षत्रिय के लिए, शरद् वैश्य के लिए, वर्षा बढ़ई के लिए या शिशिर सभी के लिए मान्य है। भारद्वाज ने वहीं यह भी कहा है कि उपनयन मास के शुक्लपक्ष में किसी शुभ नक्षत्र में, भरसक पुरुष नक्षत्र में करना चाहिए।
कालान्तर के धर्मशास्त्रकारों ने उपनयन के लिए मासों, तिथियों एवं दिनों के विषय में ज्योतिष-सम्बन्धी विधान बड़े विस्तार के साथ दिये हैं, जिन पर लिखना यहाँ उचित एवं आवश्यक नहीं जान पड़ता। किन्तु थोड़ा-बहुत लिख देना आवश्यक है. क्योंकि आजकल ये ही विधान मान्य हैं। वद्धगार्य ने लिखा है कि माघ से लेकर छ: मास उपनयन के लिए उपयुक्त हैं, किन्तु अन्य लोगों ने माघ से लेकर पांच मास ही उपयुक्त ठहराये हैं। प्रथम, चौथी, सातवी, आठवीं, नवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पूर्णमासी एवं अमावस की तिथियाँ बहुधा छोड़ दी जाती हैं। जब शुक्र सूर्य के बहुत पास हो और देखा न जा सके, जब सूर्य राशि के प्रथम अंश में हो, अनध्याय के दिनों में तथा गलग्रह में उपनयन नहीं करना चाहिए।" बृहस्पति, शुक्र, मंगल एवं बुध कम से ऋग्वेद एवं अन्य वेदों के देवता माने जाते हैं। अतः इन वेदों के अध्ययनकर्ताओं का उनके देवों के वारों में ही उपनयन होना चाहिए। सप्ताह में बुध, बृहस्पति एवं शुक्र सर्वोत्तम दिन हैं, रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। किन्तु मंगल एवं शनिवार निषिद्ध माने जाते हैं (सामवेद के छात्रों एवं क्षत्रियों के लिए मंगल मान्य है)। नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, धनिष्ठा, अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु,
. १३. मष्टे चन्ऽऽस्तगे शुके निरंशे चैव भास्करे। कर्तव्यमापनयनं मानण्याये गलाहे ॥...त्रयोदशीचतुष्क तु सप्तम्यादित्रयं तबा। चतुकादशी प्रोक्ता अष्टावेते गलग्रहाः ॥ स्मृतिचन्द्रिका, जिल्ब १, पृ० २७।
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