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धर्मशास्त्र का इतिहास
या केश काटे ही नहीं जायें।" कुछ जातियों में आज भी बच्चों के केश एक बार बना दिये जाते हैं, क्योंकि गभ वाले बाल अपवित्र माने जाते हैं ।
विद्यारम्भ
तीसरे वर्ष ( वौल संस्कार के समय ) से आठवें वर्ष (ब्राह्मणों के उपनयन संस्कार के समय ) तक बच्चों की शिक्षा के विषय में गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्र सर्वथा मौन हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इस ओर एक हलका प्रकाश मिल जाता है। ऐसा आया है कि चौल के उपरान्त राजकुमार को लिखना एवं अंकगणित सीखना पड़ता था और उपनयन के उपरान्त उसे वेद, आन्वीक्षिकी ( तत्त्वज्ञान) वार्ता ( कृषि एवं धन-विज्ञान ) एवं दण्डनीति ( शासनकला ) १६ वर्ष तक पढ़नी पड़ती थी और तभी गोदान के उपरान्त उसका विवाह होता था।" कालिदास ने रघुवंश ( ३।२८) में लिखा है कि अज ने पहले अक्षर सीखे और तव वह संस्कृत-साहित्य के सिन्धु में उतरा। बाण ने सम्भवतः अर्थशास्त्र की बात ही दुहरायी है । बाण की कादम्बरी में राजकुमार चन्द्रापीड में विद्यामन्दिर में छ: वर्ष की अवस्था में प्रवेश किया और वहाँ १६ वर्ष की अवस्था तक रहकर सभी प्रकार की कलाओं एवं विज्ञानों का अध्ययन किया । उत्तररामचरित (अंक २) में आया है कि कुश एवं लव ने चौल के उपरान्त एवं उपनयन के पूर्व वेद के अतिरिक्त अन्य विद्याएँ सीखी।
लगता है, ईसा की आराम्भक शताब्दियों से विद्यारम्भ नामक संस्कार सम्पादित किया जाने लगा था । अपके एवं स्मृतिचन्द्रिका ने मार्कण्डेयपुराण के इलोक उद्धृत करके विद्यारम्भ का वर्णन किया है।" बच्चे के पाँचवें वर्ष कार्तिक शुक्लपक्ष के बारहवें दिन से आषाढ़ शुक्लपक्ष के ११वें दिन तक किसी दिन किन्तु प्रथम, छटी, १५वीं तथा रिक्ता तिथियों (चौथी, नवीं एवं चौदहवीं) को तथा शनिवार एवं मंगलवार को छोड़कर विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिए। हरि (विष्णु), लक्ष्मी, सरस्वती, सूत्रकारों, कुलविद्या की पूजा करके अग्नि में घृत की आहुतियाँ देनी चाहिए। इसके उपरान्त दक्षिणा आदि से ब्राह्मणों का सत्कार करना चाहिए। अध्यापक को पूर्व दिशा में तथा बच्चे को पश्चिम दिशा में बैठाना चाहिए। इसके उपरान्त गुरु पढ़ाना आरम्भ करता है और बच्चा ब्राह्मणों
२४. कुमारीचलेऽपि यथाकुलधर्ममित्यनुवर्तते । ततश्च सर्वमुण्डनं शिखाधारणम् अमुण्डनमेव वेति सिध्यति । संस्कारप्रकाश पृ० ३१७ । एतच्च स्त्रीणामपि । 'स्त्रीशूद्रौ तु शिखां छित्त्वा क्रोधाद् वैराग्यतोऽपि वा । प्राजापत्यं प्रकुर्वीताम्' इति प्रायश्चित्तविधिबलात्। एतत्परिग्रहपक्षे । अत्र देशसेवाद् व्यवस्था द्रष्टव्या । स्त्रीणां केशधारणमेव शिखाधारणम् । एतच्चामन्त्रकमेव स्त्रीणां कार्यम् । होमोपि न । संस्काररत्नमाला पृ० ९०४ ।
२५. वृत्तचौलकर्मी लिपि संख्यानं चोपयुंजीत । वृत्तोपनयनस्त्रयो मान्वीक्षिकी च शिष्टेभ्यो वार्तामध्यक्षेभ्यो दण्डनीति वक्तृप्रवक्तृभ्यः । ब्रह्मचर्यं चाषोडशाद्वर्षात् । अतो गोदानं दारकर्म च । अर्थशास्त्र (१५) ।
२६. प्राप्तेऽथ पञ्चमे वर्षे अप्रसुप्ते जनार्दने । षष्ठीं प्रतिपदं चंव वर्जयित्वा तथाष्टमीम् ॥ रिक्तां पञ्चदशीं चैव सौरभौमदिनं तथा । एवं सुनिश्चिते काले विद्यारम्भं तु कारयेत् ॥ पूजयित्वा हरि लक्ष्मी देवों चैव सरस्वतीम् । स्वविद्यासूत्रकारांश्च स्वां विद्यां च विशेषतः ॥ एतेषामेव देवानां नाम्ना तु जुह्याद् घृतम् । दक्षिणाभिद्विजेन्द्राणां कर्तव्यं चात्र पूजनम् ॥ प्राङ्मुखो गुरुरासीनो वारुणाशामुखं शिशुः । अध्यापयेत प्रथमं द्विजाशीभिः सुपूजितम् ॥ ततः प्रभृत्यनध्यायान्वर्जनीयान् विवर्जयेत् । अपरार्क ( पृ० ३०-३१) । संस्कारप्रकाश में उद्धृत विष्णुधर्मोत्तर में आया है-" आषाढ शुक्लद्वादश्यां शयनं कुरुते हरिः । निद्रां त्यजति कार्तिक्यां तयोः संपूज्यते हरिः ॥ "
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