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धर्मशास्त्र का इतिहास
मिलता है। बहुतों के मत से यह जन्म के चौथे मास में किया जाता है। अपरार्क के कथनानुसार एक पुराण के मत से यह जन्म के १२वें दिन या चौथे मास में किया जाता है। इसमें पिता सूर्य की पूजा करता है। पारस्करगृह्यसूत्र के अनुसार पिता पुत्र को सूर्य की ओर दिखाता है और मन्त्रोच्चारण करता है। बौधायन में आठ आहुतियों वाला होम भी वर्णित है। गोभिल ने चन्द्रदर्शन की भी बात उठायी है। यम ने लिखा है कि सूर्य एवं चन्द्र का दर्शन क्रम से तीसरे एवं चौथे मास में होना चाहिए। इसी प्रकार अन्य धर्मशास्त्रकारों ने भी अपने मत प्रकाशित किये हैं, जिनका उल्लेख यहाँ स्थानाभाव के कारण नहीं हो रहा है।
अन्नप्राशन
इस विषय में देखिए आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।१६।१-६), शांखायनगृह्यसूत्र (१-२७), आपस्तम्बगृह्यसूत्र (१६।१-२), पारस्करगृह्यसूत्र (१।१९), हिरण्यकशिगृह्यसूत्र (२।५।१-३), काठकगृह्यसूत्र (३९।१।२), भारद्वाजगृह्यसूत्र (१।२७), मानवगृह्यसूत्र (१।२०।१।६) तथा वैखानस० (२-३२)। गोभिल एवं खादिर ने इस संस्कार को छोड़ दिया है। बहुत-सी स्मृतियों ने इसके लिए छठा महीना उपयुक्त माना है। मानव ने पाँचवाँ या छठा, शंख ने १२वाँ या छठा मास उपयुक्त समझा है। काठक ने छठा मास या जब प्रथम दाँत निकले तब इसके लिए ठीक समय माना है। शांखायन एवं पारस्कर० ने विस्तार के साथ इसका वर्णन किया है। शांखायन ने लिखा है कि पिता को बकरे, तीतर या मछली का मांस या भात दही, घृत तथा मधु में मिलाकर महाव्याहृतियों (भः, भुवः, स्व:) के साथ बच्चे को खिलाना चाहिए। उपर्युक्त चारों व्यंजन क्रम से पुष्टता, प्रकाश, तीक्ष्णता या धनधान्य के प्रतीक माने जाते हैं। इसके उपरान्त पिता अग्नि में आहुतियाँ डालता है और ऋग्वेद के चार मन्त्र (४।१२। ४-७) पढ़ता है। अवशेष भोजन को माता खा लेती है। आश्वलायन में भी ये ही बातें हैं, केवल मछली का वर्णन वहाँ नहीं है। इसी प्रकार अन्य गह्यसूत्रों में भी कुछ मतभेद के साथ विस्तार पाया जाता है। कुछ लेखकों ने बच्चे को खिलाने के साथ होम, ब्राह्मण-भोजन एवं आशीर्वचन की भी चर्चाएँ की हैं। संस्कारप्रकाश एवं संस्काररत्न माला में इस संस्कार का विस्तार के साथ वर्णन पाया जाता है। एक मनोरंजक बात की चर्चा अपरार्क ने मार्कण्डेयपुराण के उद्धरण में की है। उत्सव के दिन पूजित देवताओं के समक्ष सभी प्रकार की कलाओं एवं शिल्पों से सम्बन्धित यन्त्रादि रख दिये जाते हैं और बच्चे को स्वतन्त्र रूप से उन पर छोड़ दिया जाता है। बच्चा जिस वस्तु को सर्वप्रथम पकड़ लेता है, उसे उसी शिल्प या पेशे में पारंगत होने के लिए पहले से ही समझ लिया जाता है।
वर्षवर्धन या अब्दपूर्ति
कुछ सूत्रों में प्रत्येक मास में शिशु के जन्मदिन पर कुछ कृत्य करने को कहा गया है। ऐसा वर्ष भर तक तथा उसके उपरान्त जीवन भर वर्ष में एक बार जन्मदिवस मनाने को कहा गया है। बौधायनगृह्यसूत्र (३७) ने लिखा है--आयुष्यचरु के लिए (जीवन भर) प्रत्येक वर्ष, प्रत्येक छठे मास, प्रत्येक चौथे मास, प्रत्येक ऋतु या प्रत्येक मास
१४. कुमारस्य मासि मासि संवत्सरे सांवत्सरिकेषु वा पर्वसु अग्नीन्द्रौ द्यावापृथिव्यो विश्वान्देवांश्च यजेत् । दैवतमिष्ट्वा तिथिं नक्षत्रं च यजेत् । गोभिलगृह्यसूत्र २।८।१९-२०। आषाढ़, कातिक एवं फाल्गुन की अमावस्याओं का सांवत्सरिकपर्व कहा जाता है। देखिए शांखायनगृह्यसूत्र (१।२५।१०-११)।
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