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धर्मशास्त्र का इतिहास
तत् पुंसवनमीरितम् — संस्कारप्रकाश ) । 'पुंसवन' शब्द अथर्ववेद ( ६।११।१) में आया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "लड़के को जन्म देना ।” आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।१३।२- ७) ने इस संस्कार का वर्णन यों किया है—-गर्भ के तीसरे महीने तिष्य (अर्थात् पुष्य) नक्षत्र के दिन स्त्री को गत पुनर्वसु नक्षत्र में उपवास कर लेने के उपरान्त अपने से ही रंग के बछड़े वाली गाय के दही में दो कण शिम्बिक (सेम) एवं जी का एक कण देना चाहिए (एक चुल्लू दही में दो सेम एवं एक जौ तीन बार देने चाहिए)। यह पूछने पर कि "तुम क्या पी रही हो", "तुम क्या पी रही हो," स्त्री बोलेगी - "पुंसवन" ( पुत्र की उत्पत्ति), "पुंसवन"। इस प्रकार पति दही, दो सेम एवं एक जौ के दाने के साथ तीन बार क्रियाएं करता है ।
पुंसवन के वर्णन में कुछ धर्मशास्त्रकारों में मतभेद भी है। आपस्तम्बगृह्यसूत्र, हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र एवं भारद्वाजगृह्यसूत्र के मत में पुंसवन का संस्कार सीमन्तोन्नयन के उपरान्त होता है। आपस्तम्ब तो इसे गर्भ के स्पष्ट हो जाने पर ही करने को कहता है। पारस्कर एवं बैजवाप, जातूकर्ण्य, गोमिल, खादिर आदि में समय आदि पर मतैक्य नहीं है । याज्ञवल्क्य (१।११), पारस्कर (१/१४), विष्णुधर्मसूत्र, बृहस्पति आदि ने कहा है कि जब भ्रूण हिलने डुलने लगे तब यह क्रिया करनी चाहिए। कुछ लोगों ने कुछ नक्षत्रों को पुरुष नक्षत्र माना है, यथा स्मृतिचन्द्रिका द्वारा उद्धृत एक श्लोक में हस्त, मूल, श्रवण, पुनर्वसु, मृगशिरा एवं पुष्य पुरुष नक्षत्र कहे गये हैं। संस्कारमयूख में लिखित नारदीय के अनुसार रोहिणी, पूर्वाभाद्रपदा एवं उत्तराभाद्रपदा भी पुरुष नक्षत्र हैं। वसिष्ठ के अनुसार स्वाति, अनुराधा एवं अश्विनी भी पुरुष नक्षत्र हैं। इस प्रकार कई मत हैं, जिनके विस्तार में पड़ना यहाँ अपेक्षित नहीं है । काठकगृह्यसूत्र (३२।२ ) ने गर्भाधान के पाँचव तथा मानवगृह्यसूत्र ने आठवें मास के उपरान्त पुंसवन करने का निर्देश किया है। बहुत-से गृह्यसूत्रों ने न्यग्रोध की कोपलों (नये पत्तों) को कूटकर स्त्री के दायें नथुने में निचोड़ने को कहा है । सूत्रकारों ने इस विषय में जो मंत्रोच्चारण बताये हैं, उनमें भी विभेद है। अतः मन्त्रों का विवेचन यहाँ अपेक्षित नहीं है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो सकता है कि पुंसवन संस्कार में धार्मिक (होम तथा पुत्र प्राप्ति प्राचीन काल से ही मान्य है ), प्रतीकात्मक (सेम एवं जौ के साथ दही का पीना) एवं ओषधि - सम्बन्धी (स्त्री की नाक में कोई पदार्थ डालना) तत्त्व पाये जाते हैं। पारस्कर (१११४) ने पत्नी की गोद में कछुए के पित्त (मायु) को रखने का निर्देश क्यों किया है; समझ में नहीं आता ।
संस्काररत्नमाला जैसे कालान्तर वाले ग्रन्थों ने पुंसवन के लिए होम की भी व्यवस्था की है और कहा है कि पति के अभाव में देवर भी इस कृत्य को कर सकता है, किन्तु तब वह गृह्याग्नि ( भोजनगृह की अग्नि ) में ही किया जाता है। यही बात सीमन्तोन्नयन के विषय में भी लागू है।
अनवलोभन या गर्भरक्षण
यह कृत्य स्पष्टतया पुंसवन का एक भाग है। आश्वलायनगृह्यसूत्र ने (उपनिषद् में वर्णित ) इन दोनों को पृथक्-पृथक् माना है। बैजवापगृह्यसूत्र ने कहा है— पुंसवन एवं अनवलोभन को कृष्ण पक्ष के चन्द्र की चतुर्दशी को शुभ घड़ियों में, जब चन्द्र किसी पुरुष नक्षत्र के साथ हो, करना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि दोनों का मनाना एक ही दिन होता था। इन दोनों संस्कारों का तात्पर्य यह है कि इनके करने से गर्भपात नहीं होता । आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।१३।५-७ ) ने इसका वर्णन यों किया है - "तब वह किसी गोल घर की छाया में पत्नी के दाहिने नथुने में किसी न सूखी हुई जड़ी का रस डाले। कुछ आचार्यों के मत से 'प्रजावत्' एवं 'जीवपुत्र' नामक मन्त्रों का उच्चारण
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