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________________ वर्ण एवं स्मृतियों में वर्णित विभिन्न जातियों १२५ अब हम लगभग ईसापूर्व ५०० से १००० ई० तक की उन सभी जातियों की सूची उपस्थित करेंगे जो स्मृतियों तथा अन्य धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में वर्णित हैं। इस सूची में मुख्यतः मनु, याज्ञवल्क्य, वैखानस स्मार्त-सूत्र (१०।११-१५), उशना, सूतसंहिता (शिवमाहात्म्य-खण्ड, अध्याय १२) आदि की दी हुई बातें ही उद्धृत हैं। निम्नलिखित जातियों में बहुत-सी अब भी ज्यों-की-त्यों पायी जाती हैं। अन्ध्र-ऐतरेय ब्राह्मण (३३।६) के अनुसार विश्वामित्र ने अपने ५० पुत्रों को, जब वे शुनःशेप को अपना भाई मानने पर तैयार नहीं हुए, शाप दिया कि वे अन्ध्र, पुण्ड्र, शबर, पुलिन्द, मूतिब हो जायें। ये जातियाँ समाज में निम्न स्थान रखती थीं और इनमें बहुधा दस्यु ही पाये जाते थे। मनु (१०।३६) के अनुसार अन्ध्र जाति वैदेहक पिता एवं कार्वावर माता से उत्पन्न एक उपजाति थी और गांव के बाहर रहती, जंगली पशुओं को मारकर अपनी जीविका चलाती थी। अशोक के शिलालेख (प्रस्तर-अनुशासन १३) में अन्ध्र लोग पुलिन्दों से सम्बन्धित उल्लिखित हैं। उद्योगपर्व (१६०।१०३) में अन्ध्र (सम्भवत: आन्ध्र देश के निवासी) द्रविड़ों एवं कांच्यों के साथ वर्णित हैं। देवपालदेव के नालन्दा-पत्र में मेद, अन्ध्रक एवं चाण्डाल निम्नतम जातियों में गिने गये हैं (एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द १७, पृ० ३२१)। उड़ीसा में एक परिगणित जाति है आदि-अन्ध्र (देखिए शेड्यूल्ड कास्ट्स आर्डर आव १९३६)। अन्त्य-वसिष्ठधर्मसूत्र (१६।३०), मनु (४१७९, ८१६८), याज्ञ० (१४८, १९७), अत्रि (२५१), लिखित (९२), आपस्तम्ब (३।१) ने इस शब्द को चाण्डाल ऐसी निम्नतम जातियों का नाम उल्लिखित किया है। इस विषय में हम पुनः 'अस्पृश्य' वाले अध्याय में पढ़ेंगे। इसी अर्थ में 'बाह्य' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है (आपस्तम्बधर्मसूत्र ६१।३।९।१८; नारद-ऋणादान, १५५; विष्णुधर्मसूत्र १६।१४)। अन्त्यज--चाण्डाल आदि निम्नतम जातियों के लिए यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। मनु (८।२७९) ने इसे शूद्र के लिए भी प्रयुक्त किया है। स्मृतियों में इसके कई प्रकार पाये जाते हैं। अत्रि (१९९) ने सात अन्त्यजों के नाम लिये हैं, यथा रजक (धोबी), धर्मकार, नट (नाचनेवाली जाति, दक्षिण में यह कोल्हाटि के नाम से विख्यात है), बुरुड (बाँस का काम करनेवाला), कैवर्त (मछली मारनेवाला), मेव, भिल्ल। याज्ञवल्क्य (३१२६५) की व्याख्या में मिताक्षरा ने अन्त्यजों की दो श्रेणियाँ बतायी हैं। पहली श्रेणी में ऊपर्युक्त सात जातियाँ हैं जो दूसरी श्रेणी की जातियों से निम्न हैं। दूसरी श्रेणी में ये जातियाँ हैं-चाण्डाल, श्वपच (कुत्ते का मांस खानेवाला), भत्ता, सूत, वैदेहक, मागष, एवं आयोगव। सरस्वतीविलास के अनुसार पितामह ने रजक की सात जातियों एवं अन्य प्रकृति जातियों का वर्णन किया है। क्या प्रकृति जातियों वाली भाषा को ही 'प्राकृत' की संज्ञा दी गयी है ? व्यासस्मृति (१११२-१३) में चर्मकार, मट, भिल्ल, रजक, पुष्कर, नट, विराट, मेद, चाण्डाल, दाश, श्वपच, कोलिक नामक १२ अन्त्यजों के नाम आये हैं। इस स्मृति में गाय का मांस खानेवाली सभी जातियाँ अन्त्यज कही गयी हैं। अन्सावसायी या अन्यावसायी-मनु (४७९) ने 'अन्त्यों एवं अन्त्यावसायियों को अलग-अलग लिखा है और (१०१३९) अन्त्यावसायी को चाण्डाल पूरुष एवं निषाद स्त्री की सन्तान कहा है। भाष्यों में ये अछत और श्मशान के निवासी कहे गये हैं। किन्तु वसिष्ठधर्मसूत्र में अन्त्यावसायी शूद्र पुरुष एवं वैश्य नारी की सन्तान कहा गया है (१८१३)। इसके सामने वेद-पाठ वर्जित है (भारद्वाजश्रौतसूत्र ११।२२।१२)। अनुशासनपर्व (२२।२२) एवं शान्तिपर्व (१४१२२९-३२) में इसकी चर्चा हुई है। नारद (ऋणादान, १८२) ने इसे गवाही के अयोग्य ठहराया है। आधुनिक काल के कुछ ग्रन्थ, यथा जातिविवेक आदि ने आज के डोम को स्मृतियों का अन्त्यावसायी माना है। अभिसिक्त-इसके विषय में आगे 'मूर्धावसिक्त' के अन्तर्गत पढ़िए। अम्बष्ठ-इसे मृज्जकण्ठ भी कहा जाता है। ऐतरेय ब्राह्मण (३९।७) में चर्चा है कि राजा आम्बष्ठय ने अश्वमेघ यज्ञ किया था। पाणिनि (८।३।९७) ने अम्बष्ठ की व्युत्पत्ति बतायी है। पतञ्जलि ने (पाणिनि, ४।१।१७० पर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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