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________________ देखने को मिलता है। किन्तु उन दिनों जन्म से ब्राह्मण होना स्पष्ट हो गया था। ग्वेद में 'ब्रह्म' शब्द का अर्थ है 'प्रार्थना' या 'स्तुति' ।' अथर्ववेद (२।१५।४) में 'ब्रह्म' शब्द 'ब्राह्मण' वर्ग के अर्थ में आया है। 'ब्रह्म' शब्द का क्रमशः ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त हो जाना स्वाभाविक ही है, क्योंकि ब्राह्मण ही स्तुतियों एवं प्रार्थनाओं (ब्रह्म) के प्रणेता होते थे। ऋग्वेद में ब्रह्म एवं क्षत्र, 'स्तुति' एवं 'शक्ति' के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। कहीं-कहीं ये शब्द क्रम से ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के लिए प्रयुक्त हो गये हैं, यथा 'ब्रह्म वै ब्राह्मणः क्षत्रं राजन्यः' (त० ब्राह्मण, ३।९।१४)। 'राजन्य' शब्द केवल पुरुषसूक्त में ही आया है। अथर्ववेद में यह क्षत्रिय के अर्थ में प्रयुक्त है (५।१७४९)। क्षत्रिय वैदिक काल में जन्म से ही क्षत्रिय थे कि नहीं, इसका स्पष्ट उत्तर देना सम्भव नहीं है। ऋग्वेद की एक गाथा इस बात पर प्रकाश डालती है कि सम्भवतः ऋग्वेदीय काल में क्षत्रियों एवं ब्राह्मणों में कर्म-सम्बन्धी कोई अन्तर नहीं था। देवापि एवं शन्तनु दोनों ऋष्टिषेण के पुत्र थे। शन्तनु छोटा भाई था, किन्तु राजा वही हुआ, क्योंकि देवापि ने राजा होने में अनिच्छा प्रकट की। शन्तनु के पापाचरण के फलस्वरूप अकाल पड़ा और देवापि ने यज्ञ करके वर्षा करायी। देवापि शन्तनु का पुरोहित था। इस कथा से यह स्पष्ट है कि एक ही व्यक्ति के दो पुत्रों में एक क्षत्रधर्म का, दूसरा ब्रह्मधर्म का पालन कर सकता था, अर्थात् दो भाइयों में एक राजा हो सकता था और दूसरा पुरोहित। ऋग्वेद (९।११।२१३) में एक कवि कहता है--'मैं स्तुतिकर्ता हूँ, मेरे पिता वैद्य हैं और मेरी माँ चक्कियों में आटा पीसती है। हम लोग विविध क्रियाओं द्वारा धनोपार्जन " एक स्थान पर (ऋ० ३।४४१५) कवि कहता है-हे सोम पान करनेवाले इन्द्र, क्या तुम मुझे लोगों का रक्षक बनाओगे या राजा? क्या तुम मुझे सोम पीकर मस्त रहनेवाला ऋषि बनाओगे या अनन्त धन दोगे?' स्पष्ट है, एक ही व्यक्ति ऋषि, भद्रपुरुष या राजा हो सकता था। यद्यपि 'वश्य' शब्द ऋग्वेद के केवल पुरुषसूक्त में ही आया है, किन्तु 'विश्' शब्द कई बार प्रयुक्त हुआ है। विश्' का अर्थ है 'जन-दल'। कई स्थानों पर 'मानुषीविंशः' या 'मानुषीषु विक्षु' या 'मानुषीणां विशाम्" प्रयोग आये हैं। ऋग्वेद (३॥३४।२) में आया है--'इन्द्र क्षितीनामसि मानुषीणां विशां दैवीनामुत पूर्वयावा,'अर्थात् 'इन्द्र, तुम मानवीय झुण्डों एवं दैवी झुण्डों के नेता हो।" ऋग्वेद (८१६३।७) के मन्त्र 'यत्पाञ्चजन्यया विशेन्द्र घोपा असृक्षत्' में 'विश्' सम्पूर्ण आर्य जाति का द्योतक है। ऋग्वेद के ५।३२।११ में इन्द्र की उपाधि है 'पाञ्चजन्य' (पांच जनों के प्रति अनुकूल) तथा ऋग्वेद के ९।६६।२० में अग्नि की उपाधि है 'पाञ्चजन्यः पुरोहितः। कहीं-कहीं 'जन' एवं 'विश्' शब्दों में विरोध भी है, यथा 'स इज्जनेन स विशा स जन्मना स पुर्वाज भरते धना नृभिः' (ऋ० २।२६।३)। किन्तु "विश्' पाञ्चजन्य भी कहा गया है, इससे स्पष्ट है कि 'जन' एवं 'विश्' में कोई भेद नहीं है। 'पञ्च जनाः' का उल्लेख ऋग्वेद में कई बार हुआ है ( ० ३।३७।९; ३।५९।७; ६।११।४; ८१३२।२२; १०।६५।।२३; १०।४५।६)। इसी प्रकार 'कृप्टि', 'क्षिति', 'चर्पणि' नामक शब्द 'पञ्च' शब्द के साथ प्रयुक्त हुए हैं, उदाहरणार्थ, 'पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु' ३.वं नो अग्ने अग्निभिब्रह्म यजं च वधंय (हे अग्नि, अपनी ज्वाला से हमारी स्तुति एवं यज्ञ को बढ़ाओ) १० १०।१४१३५, विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेवं भारतं ननम् (यह विश्वामित्र का ब्रह्म अर्थात् स्तुति या आध्यात्मिक शक्ति भारत जनों को रक्षा करे )। ४. देखिए, यास्क का निरुक्त (२०१०) । इसके अनुसार शन्तनु एवं देवापि कौरव्य भाई थे। ५. 'कायरहं ततो भिषगुपक्षिणी नना। नानाधियो वसूयवो अनु गा इव तस्थिम ।' यहाँ 'कार' का अर्थ है स्तुति-प्रणेता; नदियों ने ऋग्वेद (३३३३।१०) में विश्वामित्र को कार कहा है; आ ते कारो शृणवामा वासि।' 'काह रहम' के लिए देखिए किन ६६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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