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धर्मशास्त्र का इतिहास कुछ ग्रन्थों में 'धर्म' को श्रौत (वैदिक), स्मात (स्मृतियों पर आधारित) एवं शिष्टाचार (शिष्ट या भले लोगों के आचार-व्यवहार) नामक भागों में बांटा गया है। एक अन्य विभाजन के अनुसार 'धर्म' के छः प्रकार हैं-वर्णधर्म (यथा, ब्राह्मण को कभी सुरापान नहीं करना चाहिए), आश्रमधर्म (यथा, ब्रह्मचारी का भिक्षा मांगना एवं दण्ड ग्रहण करना), वर्णाश्रमधर्म (यथा, ब्राह्मण ब्रह्मचारी को पलाश वृक्ष का दण्ड ग्रहण करना चाहिए), गुणधर्म (यथा, राजा को प्रजा की रक्षा करनी चाहिए), नैमित्तिक धर्म (यथा, वजित कार्य करने पर प्रायश्चित्त करना), साधारण धर्म ( जो सबके लिए समान हो, यथा, अहिंसा एवं अन्य साधु वृत्तियाँ)।' मेधातिथि ने साधारणा धर्म को छोड़ दिया है और पांच प्रकारों का ही उल्लेख किया है (मनु० २।२५) । हेमाद्रि ने भविष्यपुराण से उद्धरण देकर छः प्रकारों का वर्णन किया है। एक बात विचारणीय यह है कि सभी सूचियों में वर्ण एवं आश्रम की चर्चा है और सभी स्थानों पर, विशेषतः प्रमुख स्मृतियों में, ऋषियों एवं मुनियों ने धर्मशास्त्रकारों से वर्णों एवं आश्रमों के विषयों में विवेचन करने की प्रार्थना की है।
सामान्य धर्म धर्मशास्त्र के विषयों की चर्चा एवं विवेचन के पूर्व मानव के सामान्य धर्म की व्याख्या अपेक्षित है। धर्मशास्त्रकारों ने आचार-शास्त्र के सिद्धान्तों का सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचन उपस्थित नहीं किया है और न उन्होंने कर्तव्य, सौख्य या पूर्णता (परम विकास) की धारणाओं का सूक्ष्म एवं अवहित विश्लेषण ही उपस्थित किया है। किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि धर्मशास्त्रकारों ने आचार-शास्त्र के सिद्धान्तों को छोड़ दिया है अथवा उन पर कोई ऊँचा चिन्तन नहीं किया है। अति प्राचीन काल से सत्य को सर्वोपरि कहा गया है ; ऋग्वेद (७।१०४।१२) में आया है
न एवं असत्य वचन में प्रतियोगिता चलती है। सोम दोनों में जो सत्य है,जो ऋज (आर्जव है उसी की रक्षा करता है और असत्य का हनन करता है। ऋग्वेद में ऋत की जो मान्यता है वह बहुत ही उदात्त एवं उत्कृष्ट है और उसी में के धर्म के नियमों के सिद्धान्त समाविष्ट हैं। शतपथ ब्राह्मण में आता है-अतः मनुष्य सत्य के अतिरिक्त कुछ और न बोले। तैत्तिरीयोपनिषद् में समावर्तन नामक संस्कार के समय गुरु शिष्य से कहता है-'सत्यं वद। धर्म चर (१११११)।' छान्दोग्योपनिषद् (३।१७) में दक्षिणा पाँच प्रकार की कही गयी है; तपों के पांच गुणविशेष, दान, आर्जव, अहिंसा, सत्यवचन । बृहदारण्यकोपनिषद् ने कहा है कि व्यावहारिक जीवन में सत्य एवं धर्म दोनों
२. वेदोक्तः परमो धर्मः स्मृतिशास्त्रगतोऽपरः। शिष्टाचीर्णः परः प्रोक्तस्त्रयो धर्माः सनासनाः॥ अनुशासनपर्व १४११६५; वनपर्व २०७१८३ 'वेदोक्त...धर्मशास्त्रेषु चापरः। शिष्टाचारश्च शिष्टाना त्रिविषं धर्मलक्षणम् ॥' देखिए, शान्तिपर्व ३५४।६; और देखिए, 'उपविष्टो धर्मः प्रतिवेदम् ।....स्मार्तो द्वितीयः। तृतीयः शिष्टागमः।' बौ० ५० सू० १३१११-४।
३. इह पञ्चप्रकारो धर्म इति विवरणकाराःप्रपञ्चयन्ति। मेघातिधि-मनुस्मृति १२५, अत्र च धर्मशम्बा षविधस्मार्तधर्मविषयः, तबथा-वर्णधर्म आश्रमधर्मो वर्णाश्रमधर्मो गुणधर्मो निमित्तधर्मः साधारणपर्मश्चेति । मितालरा याज्ञवल्क्यस्मृति पर ॥१॥
४. सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृषाते। तयोर्यत्सत्यं यतरजीयस्तवित्सोमोऽवति हन्त्य सत्॥ ऋ० ७.१०४।१२।
५. तुलना कीजिए, शतपथ बा० १११११११, 'अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति' तया ॥११॥५ 'सव सत्यमेव वदेत्।'
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