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जीमूतवाहन, मपरा कालविवेक में कालचर्चा करते हुए जीमूतवाहन ने एक स्थान पर १०९१-१०९२ ई० की गणना की है। लेखक को समीप के काल की चर्चा और गणना ही सुविधाजनक लगती है, अतः जीमूतवाहन १०९० तथा ११३० के मध्य में हुए होंगे। किन्तु एक विरोध खड़ा किया जा सकता है। १२वीं शताब्दी से लेकर १४वीं तक किसी भी धर्मशास्त्रकार ने जीमूतवाहन का नाम नहीं लिया है। हारलता, कुल्लूक के भाष्य आदि ने उनकी कहीं भी चर्चा नहीं की है। विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि जीमूतवाहन ने मिताक्षरा की आलोचना की है। इससे यह कहा जा सकता है कि जीमूतवाहन मिताक्षरा के बाद तो आये, किन्तु उनकी तिथि की मध्य कड़ी क्या है, यह कहना कठिन है।
७९. अपरार्क अपरादित्य ने याज्ञवल्क्यस्मृति पर एक बहुत ही विस्तृत टीका लिखी है, जो अपरार्क-याज्ञवल्क्य-धर्मशास्त्र-निबन्ध के नाम से विख्यात है। यह आनन्दाश्रम प्रेस (पूना) से दो जिल्दों में प्रकाशित हुआ है। इस निबन्ध के अन्त में लेखक विद्याधरवंश के जीमूतवाहन कुल में उत्पन्न राजा शिलाहार, अपरादित्य कहे गये हैं। यह ग्रन्थ यद्यपि मिताक्षरा की भांति याज्ञवल्क्यस्मृति की टीका है, किन्तु यह एक निबन्ध है। यह मिताक्षरा से बहुत बृहत् है। इसने गृह्य एवं धर्मसूत्रों एवं पद्यबद्ध स्मृतियों से बिना किसी रोक के लम्बे-लम्बे उद्धरण लिये हैं। मिताक्षरा से यह कई बातों में भिन्न है। जहाँ मिताक्षरा ने पुराणों से उद्धरण लेने में बड़ी सावधानी प्रदशित की है, इसने कतिपय पुराणों से लम्बे-लम्बे अंश उतार लिये हैं, यथा आदि, आदित्य, कूर्म, कालिका, देवी, नन्दी, नृसिंह, पद्म, ब्रह्म, ब्रह्माण्ड, भविष्यत्, भविष्योत्तर, मत्स्य, मार्कण्डेय, लिंग, वराह, वामन, वायु, विष्णु, विष्णुधर्मोत्तर, शिवधर्मोत्तर एवं स्कन्द नामक पुराणों से। इस लम्बी संख्या में पुराण एवं उपपुराण दोनों सम्मिलित हैं। इसमें धर्मसूत्रों (गौतम, वसिष्ठ) से भी प्रभूत लम्बे उद्धरण लिये गये हैं। यह बात मिताक्षरा में नहीं पायी जाती। शंकराचार्य की शैली में अपरार्क ने शैव, पाशुपत, पाञ्चरात्र, सांख्य एवं योग के सिद्धान्तों के छोटे-छोटे निष्कर्ष भी दिये हैं। यद्यपि अपरार्क ने शारीरक मीमांसा-शास्त्र की ओर संकेत किया है, तथापि वे अद्वैत के पुजारी नहीं लगते। मिताक्षरा ने अपने पूर्व के निबन्धकारों, यथा-असहाय, विश्वरूप, मारुचि, श्रीकर, मेघातिथि एवं धारेश्वर के नाम लिये हैं, किन्तु अपरार्क इस विषय में मौन हैं। अपरार्क ने ज्योतिषशास्त्र के कई लेखकों की कृतियों का उल्लेख किया है, यथा-गर्ग, क्रियाश्रय एवं सारावलि। कुमारिल भट्ट का उद्धरण भी अपरार्क के निबन्धों में आया है। मिताक्षरा में पूर्वमीमांसा की प्रभूत चर्चाएँ हुई हैं, किन्तु अपरार्क ने ऐसा बहुत कम किया है। विद्वत्ता, स्वच्छता, तर्क, अभिव्यञ्जना आदि में मिताक्षरा अपरार्क से बहुत आगे है। इस विषय में इसकी कोई तुलना नहीं हो सकती।
जीमूतवाहन से सम्बन्धित बहुत-से मतों की घोषणा अपरार्क ने भी की थी। मरे हुए व्यक्ति को पिण्ड आदि देने से ही उसकी सम्पत्ति का कोई अधिकारी हो सकता है। दो-एक अन्य बातों में अपरार्क एवं मिताक्षरा में थोड़ा विभेद है। अन्यथा दोनों एक-दूसरे से मतों के विषय में बहुत मिलते हैं। क्या अपरार्क को मिताक्षरा की उपस्थिति का ज्ञान था? इसका उत्तर सरल नहीं है। सम्भवतः मिताक्षरा का ज्ञान अपरार्क को था।
अपरार्क की तिथि का अनुमित निर्णय किया जा सकता है। स्मृतिचन्द्रिका ने कई बार अपरार्क के मतों की चर्चा एवं उनकी मिताक्षरा के मतों से तुलना की है। स्मृतिचन्द्रिका की तिथि, जैसा कि हम बाद को देखेंगे, लगभग १२०० ई० है, यदि यह मान लिया जाय कि अपरार्क ने मिताक्षरा की चर्चा की है तो अपरार्क की तिथि ११००-१२०० ई. के बीच में होगी। यहाँ हमें अभिलेख सहायता देते हैं। अपरादित्य जीमूतवाहन-वंश के
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