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आङ्गिरसस्मृति
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असगोत्रों के संस्कार में आशौच
१४६ माता-पिता के मताह का परित्याग होने पर प्रायश्चित १५०-१५१ नदी स्नान से निष्कृति या संहिता पाठ
१५२-१५६ वेदमहिमा
१५७-१५६ ब्राह्मण का वेदाधिकार
१६०-१६३ स्नान का सब विधियों में प्राधान्य
१६४ सम्पूर्ण कार्यों में स्नान ही मूल कारण बताया है
१६५-१६७ अस्पृश्य स्पर्शनादि कर्माङ्गस्नान
१६८-१७१ वमन में स्नान
१७२ वमन में स्नान न कर सके तो वस्त्र बदल ले
१७३-१७४ शाकमूलादि के वमन में स्नान
१७५-१७६ रात्रि में वमन में स्नान
१७७ अपने गोत्र के छोड़ने पर अन्य गोत्र के स्वीकार करने का दोष १७८-१७६ अर्धोदय, महोदय एवं योग का विधान
१८०-१८३ स्त्री के पत्यन्य के साथ चितारोहण होने पर पुत्र का कृत्य १८५-१६१
स्त्रीणां पुनर्विवाहे प्रायश्चित्तवर्णनम् : २९६६ जातिभेद से निष्कृति
१६२ स्त्री के पुनर्विवाह में दोष जैसे
पुनर्विवाहिता मूढः पितृभ्रातमुखैः खलः । यदि सा तेऽखिलाः सर्वे स्य निरयगामिनः ॥१३॥ पुनविवाहिता सा तु महारौरवभागिनी । तस्पतिः पितभिः सार्घ कालसूत्रगगो भवेत् ।
दाता चाङ्गारशयननामकं प्रविपद्यते ।।१६४।। यदि मूर्ख एवं दुष्ट पिता व भाई आदि के द्वारा फिर स्त्री विवा
हित की जाय तो वे सब नरकगामी होते हैं और वह स्त्री महारौरव नरक में जाती है, व उसका विवाहित पति अपने पितरों के साथ कालसूत्र नामक नरक में गिरता है एवं देने वाला अङ्गारशयन नाम वाले नरक में जाता है। पुनर्विवाह के दोष निवारणार्थ प्रायश्चित्त का कथन
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