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________________ आङ्गिरसस्मृति १७१ असगोत्रों के संस्कार में आशौच १४६ माता-पिता के मताह का परित्याग होने पर प्रायश्चित १५०-१५१ नदी स्नान से निष्कृति या संहिता पाठ १५२-१५६ वेदमहिमा १५७-१५६ ब्राह्मण का वेदाधिकार १६०-१६३ स्नान का सब विधियों में प्राधान्य १६४ सम्पूर्ण कार्यों में स्नान ही मूल कारण बताया है १६५-१६७ अस्पृश्य स्पर्शनादि कर्माङ्गस्नान १६८-१७१ वमन में स्नान १७२ वमन में स्नान न कर सके तो वस्त्र बदल ले १७३-१७४ शाकमूलादि के वमन में स्नान १७५-१७६ रात्रि में वमन में स्नान १७७ अपने गोत्र के छोड़ने पर अन्य गोत्र के स्वीकार करने का दोष १७८-१७६ अर्धोदय, महोदय एवं योग का विधान १८०-१८३ स्त्री के पत्यन्य के साथ चितारोहण होने पर पुत्र का कृत्य १८५-१६१ स्त्रीणां पुनर्विवाहे प्रायश्चित्तवर्णनम् : २९६६ जातिभेद से निष्कृति १६२ स्त्री के पुनर्विवाह में दोष जैसे पुनर्विवाहिता मूढः पितृभ्रातमुखैः खलः । यदि सा तेऽखिलाः सर्वे स्य निरयगामिनः ॥१३॥ पुनविवाहिता सा तु महारौरवभागिनी । तस्पतिः पितभिः सार्घ कालसूत्रगगो भवेत् । दाता चाङ्गारशयननामकं प्रविपद्यते ।।१६४।। यदि मूर्ख एवं दुष्ट पिता व भाई आदि के द्वारा फिर स्त्री विवा हित की जाय तो वे सब नरकगामी होते हैं और वह स्त्री महारौरव नरक में जाती है, व उसका विवाहित पति अपने पितरों के साथ कालसूत्र नामक नरक में गिरता है एवं देने वाला अङ्गारशयन नाम वाले नरक में जाता है। पुनर्विवाह के दोष निवारणार्थ प्रायश्चित्त का कथन १६३-२०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002787
Book TitleSmruti Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagsharan Sinh
PublisherNag Prakashan Delhi
Publication Year1993
Total Pages636
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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