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लोहितस्मृति
मुख्य गृह्याग्नि के कार्य धर्मपत्नी के अधीन हैं। अत: वह कार्य
विशेष उपस्थित हुए बिना कोई भी रूप में सीमोल्लंघन न करे अन्यथा गृह्य अग्नि लौकिक अग्नि हो जायगी और अग्नि की स्थापना फिर से करनी होगी।
१०५-१०६ किसी छोटी नदी को भी यदि मोह से पार कर लिया तो फिर
नई प्रतिष्ठा अग्नि सन्धान के लिये करनी होगी। ११०-११४ यदि ज्येष्ठ पत्नी कारण-विशेष से उपस्थित न हो सके बाहर गई
हो तो द्वितीयादि अग्नि से श्राद्धादि विधि सम्पादित हो सकती है, परन्तु उसमें कोई भी विधि अमन्त्रक नहीं हो सकती सभी अमन्त्रक करनी चाहिए
११५-१२६ पूर्व पत्नी के न रहने से गृह्याग्नि की स्थापना के लिए जब दूसरा
विवाह किया जाय तो पहले के घड़े से नूतन विवाहित स्त्री के घट में अग्नि की स्थापना की जाय
१३०-१३५ अग्नि उसी समय भ्रष्ट हो जाती है, जब पत्नी चरित्र से दूषित हो १३६-१४० यदि द्वितीयाग्नि से वेद प्रतिपादित कर्म किए जाय तो ये फलदायक नहीं होते
१४१-१५२ अतः पूर्व पत्नी के गृह्याग्नि को दूसरे विवाह के वर्तन में स्थापित कर धर्मपत्नीवत् सारे काम किए जाय
१५३-१५५ यदि किसी दुश्चरित्र माता के दूषित होने से पूर्व पति से सन्तान
हुई हो तो वह सारे वैदिक कार्यों के करने का अधिकार रखती है परन्तु दुश्चरित्र होने के बादवाली सन्तान किसी भी रूप में ग्राह्य नहीं
१५६-१५७ कलियुग में पांच कर्मों का निषेध-अश्वालम्भ, गवालम्भ, एक के
रहते हुए दूसरी भार्या का पाणिग्रहण, देवर से पुत्रोत्पत्ति एवं विधवा का गर्भ धारण
१५८-१६६ ___द्वादशविधपुत्राः : २७१७ क्षेत्रज, गूढ़ज, व्यभिचारज, बन्धु, अबन्धु और कानीनज आदि १२ प्रकार के पुत्रों के भेद ।
१७०-१८६ दत्तक पुत्र लेने और देने में माता-पिता ही एक मात्र अधिकार रखते हैं दूसरे नहीं
१८७-२०८
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