________________
वाधूलस्मृति
१४३
७८-८६
के नक्षत्र में वैधृत पुण्यकाल, ब्यतीपात और संक्रान्ति पर्यों में, अमावस्या को नदी में स्नान कोटि कुलों का उद्धार कर देता है । प्रातः स्नान करने वाले को नरक के दुःख कभी नहीं देखने पड़ते । स्नान किए बिना भोजन करने वाला मल का भोजन करता है
६९-७५ शिव सङ्कल्प सूक्त का पाठ, मार्जन, अघमर्षण, देवर्षि पितृ तर्पण ये स्नान के पांच अङ्ग हैं
७६-७७ जल के अवगाहन, जल में अपने शरीर का अभिषेक, जल को
प्रणाम और जल में तीर्थों गङ्गादि नदियों का आवाहन फिर मज्जन, अघमर्षण, देवर्षि पितृतर्पण का विधान बतलाया
गया है प्रातः स्नान का महत्त्व । अपने शरीर को पोछने पर सूखे कपड़े
पहनकर उत्तरीय धारण करे। वन्दन और तर्पण के समय इसे कटि प्रदेश में ही बांधे रखे । फिर तिलक करे । पर्वत की चोटी से, नदी के किनारे से, विशेष रूप से विष्णु क्षेत्र में मिली सिन्धु के तट पर तुलसी के मूल की मिट्टी से तिलक प्रशस्त बताया गया है
६०-१०८ श्यामतिलक शान्तिकर, लाल वश में करनेवाला, पीला लक्ष्मी देने वाला और सफेद मोक्षदाता बतलाया है
१०६-११० भगवान् पर चढ़ाए गए हरिद्रा के चूर्ण के तिलक का माहात्म्य १११ प्रातःकाल गायत्री का ध्यान, मध्याह्न में सावित्री और सायं काल
सरस्वती का ध्यान करना चाहिए । प्रतिग्रह, अन्नदोष, पातक और उपपातकों से गायत्री मन्त्र के जपने वाले की गायत्री रक्षा करती है इसलिए इसका नाम गायत्री है ।
प्रतिग्रहावन्नदोषापातकादुपपातकात ।
गायत्री प्रोच्यते यस्माद् गायन्तं त्रायते यतः ॥ ११५ ।। सविता को प्रकाशित करने से इसका नाम सावित्री और संसार की
प्रसवित्री वाणी रूप से होने से इसका नाम सरस्वती अन्वर्थ है (जैसा नाम वैसा गुण)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org