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नाणपंचमीकहाओ शकता नथी एम श्री महेश्वर सूरिए कहुं छे ते तो आपणे आगळ जोयु. हरिभद्रसूरि, दाक्षिण्यचिह्न उद्योतन सूरि, सिद्धर्षि, तथा महेश्वर सूरिए करेली प्रशंसा उपर, जैन विद्वानोए ए करेली छे एवो आक्षेप कदाच करवामां आवे. ए माटे जैनेतर विद्वानोना अभिप्रायो तपासवा जरूरी छे.
“शंभुरहस्य" जेवा प्रसिद्ध जनेतर ग्रंथमां प्राकृतने आर्यभाषा गणावी संस्कृतनी समकक्ष स्थापी "छे. कवि दंडी पोताना "काव्यादर्श" नामना अपूर्व ग्रन्थमा प्राकृतना वखाण करे छे;" त्रिविक्रमदेव पोताना “प्राकृतशब्दानुशासन "मां प्राकृतने अनल्प अर्थवाळु अने सरळताथी उच्चारी शकाय तेवु गणे छे-गणावे छे; विक्रमीय दशमी शताब्दिमां थयेल मनाता यायावरीय कवि राजशेखर पोताना “कपूरमञ्जरीसट्टक "मां संस्कृत अने प्राकृतने, कठोरता अने सुकुमारतानी दृष्टिए, अनुक्रमे पुरुष अने स्त्री साथे सरखावे छ, प्राकृत काव्यना लालित्यादि गुणो माटे जयवल्लभे “ वजालग्ग"मां तो स्थळे स्थळे घणुं कयुं छे; वाक्पतिराजे पोताना “गउड वहो" काव्यमा प्राकृतमांथी संस्कृत नीकळ्युं छे एम स्पष्ट जणाव्युं छे;१ भूषणभट्टना पुत्र कुतूहले पोतानी अप्रकट "लीलाबई कहा"मां एक स्त्री-पात्रना मुखे प्राकृतना भारोभार वखाण कराव्या छे..२ आ रीते "शंभुरहस्य"ना रचनार, दंडी, त्रिविक्रमदेव, राजशेखर, जयवल्लभ, वाक्पतिराज अने कुतूहल जेवा विश्रुत जैनेतर विद्वानना मुखेथी पण प्राकृभाषाना यशोगान गवाया छे.
नाट्यशास्त्रमा पण प्राकृतने विशिष्ट स्थान छे. “दशरूपक"नो रचनार कवि धनंजय स्त्रीओनी भाषा प्रायः प्राकृत होय छे एवं सूत्र स्थिर करे छे.३ए उपरांत अलंकारशास्त्र, व्याकरण, प्राकृत कोशो, छंदःशास्त्र, कथाओ, ऐतिहासिक ग्रन्थो, चरित्रो वगेरे वगेरे प्राकृत साहित्यमा पुष्कळ लखायुं छे. राजामहाराजाओए पण प्राकृत वाङ्मय खेड्युं छे. कविवत्सल सातवाहननी "गाथासप्तशती", प्रवरसेननो "सेतुबंध" तथा महाराजा यशोवर्माना आश्रित सामंत वाक्पतिराजनो “गउडवहो" आना दृष्टांत छे. आ रीते प्राकृत वाङ्मय, संस्कृतनी माफक, सर्व दिशामां खेडायेलुं छे ए आपणे जोडे अने साथे साथे प्राकृतनी सुखबोधकता, हृदयंगमता, मधुरता, स्वादुता वगेरे विषेना जैन - जैनेतर विद्वानोना अमूल्य अभिप्रायो पण तपास्या. महेश्वर सूरिए प्राकृतनी सरळता विषे काढेला उद्गारोनुं रहस्य आपणने हवे बराबर समजायु होवू जोईए.
संघ संघ तरफनो श्री महेश्वर सूरिनो अनुकरणीय आदरभाव खास नोंधवा जेवो छे. ज्ञान, दर्शन अने चारित्र्यनी त्रिपुटीनो आधार एकंदरे गणो तो महानुभाव संघ ज छे. संघनी पूजा करो, संघनुं बहुमान करो के संघनी आराधना करो एटले परंपरार ज्ञाननी आराधना ज थई. संघ पण योग्य माणसनी, ज्ञानीनी, मुनिनी कदर क्या नथी करतो? तो पछी संघना प्रोत्साहन विना एक डगलं पण आगळ वधी शकाय तेम नथी. वात्सल्य, अनुशास्ति, उपबृंहणा वडे संघ भव्य जीवना उपकारमां हमेशा तत्पर होय छे. देवो जेमना चरणने पूजे छे, चौद राजलोक जेनी पासे हस्तामलकवत् देखाय छे एवा निर्दोष तीर्थंकर भगवान् पण
८९ शंभुरहस्य, प १७, १८. .. ९. काव्यादर्श, १, ३४.
९१ गउडवहो, ६५, ९२-९४.
९२ आ कथाग्रन्थ- संपादन प्रो. डॉ. ए. एन्. उपाध्ये ए कर्यु छे अने ते सिंघी जैन ग्रंथमालामा हमणां ज प्रकावित थयो छे.
९३ दशरूपक, परिच्छेद २, ६०.
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