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प्रस्तावना
"रहूपुत्तफला भज्जा लच्छी बिहु दाणभोगफलसारा । निव्वुफलो य मित्तो धम्मफलाई व सहथाई" ॥ १।४४० ॥
विश्वधर्म जेवी कोई वस्तु होई शके नहि. एक ज धर्म स्थापवो ए तो एक घेलछा मात्र छे. उपदेश सौ कोई एक रूपे परिणमतो ज नथी. माटे पोताना मत तरफ सौ कोई वळे एवं इच्छवुं ए तद्दन व्यर्थ छे ए दर्शाववा कवि श्री महेश्वर सूरि कहे छे के सघळा जीवोने पोते जे ग्रहण कर्तुं ते ज ग्रहण करावया कोण समर्थ थई शके ? ब्रह्मा, मनु अने मांधाता वगेरे घणा होवा छतां एक जगतने एक मतवाळु के एक धर्मवाळु करी शक्या नहि तो अन्यथी शुं थई शके ? जुओ :
"बंभाइएहिं मणुमाइएहिं संघत्तमाइराईहिं ।
जयमेगमयं काउं न सक्किउं बहुहि किमणेण ?" ॥ १।४८४ ॥
लांबा वखतनी दीक्षा के विविध विषयनुं विपुल ज्ञान मोक्षप्राप्ति माटे जरूरनुं नथी. शुभ भाव विना बधुं नकामुं छे. क्रिया करवाथी भावशुद्धि न थती होय तो ए क्रियानो कांई अर्थ नथी. क्रिया ए तो आत्मानो व्यायाम छे. ए व्यायाममांथी शुद्धभावनुं नवुं लोही सर्जवानुं छे. आम न बने तो क्रियाकांडनो कांई अर्थ नथी. जयसेने थोडा ज वखतमां कैवल्य प्राप्त कर्यु ज्यारे घणी लांबी प्रव्रज्याना पर्यायवाळा हजु ज्यांने त्यांज पड्या हता. ए दर्शाववा महेश्वरसूरि कहे छे: -
“चिरपव्वज्जा नाणं एयं न हु कारणं हवइ मोक्खे ।
जस्सेव सुहो भावो सो चेव य साहए कज्जं ॥ १।५०२ ॥
झाझी स्त्रीओ एक ठेकाणे भेगी थई होय एमां सारावाट नहि तेमज झाझा कागडाओ देखाय तो ते पण अशुभसूचक छे; झाझा डरपोक माणसो भेगा थया होय त्यां पण कांई भलीवार न होय. आ लोकमान्यता कविश्री निम्नोक्त गाथा द्वारा जणावे छेः
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"कागा कापुरिसा वि य इत्थीओ तह य गामकुक्कडया |
एगट्टाणे वि ठिया मरणं पायेंति अइबहुहा" || १०|४५२ ॥
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आवा तो सेंकडो सुभाषितो आख्याने आख्याने वेरायेला मळी आवे छे परंतु ए बधाने चर्चवानो अहिं अवकाश नथी. आ सुभाषितोनो बराबर अभ्यास कर्या पछी आपणने ए निश्चित रीते विदित थाय छे के श्री महेश्वर सूरि समाजना, संसारना अने स्त्री मानसना अजोड अभ्यासी हता. अन्य आख्यानोमां आवतां थोडां बीजां सुभाषितो जोईए.
वैभवथी जे फुलातो नथी अने यौवनकाळे विकारने वश थतो नधी ते देवोने पण पूज्य छे तो मनुमां पूजनीय बने एमां नवाई शी ? अनासक्त योगीनी सर्वधर्मसामान्य ए व्याख्या महेश्वर सूरिने पण मंजूर छे, ए आ सुभाषितथी आपणने जाणवा मळे केः -
" विहवेण जो न भुलइ जो न वियारं करेद्द तारुन्ने |
सो देवाण वि पुजो किमंग पुण मणुयलोयस्स ?" || २|९५ ॥
" जन्मना जायते शूद्रः संस्कारी द्विज उच्यते" आ चतुर्वर्णनियामक तटस्थ अने उदार व्याख्यानुं सुरेख प्रतिबिंब, स्त्री - पुरुषना लक्षणकथन संबंधे वापरेल निम्नोक्त सूक्तिमां आपणी नजरे चडे छे: "मायाइविलसिएणं पुरिसो वि हु इत्थिया इहं होइ ।
इत्थी वि सरल हियया पुरिसो इह होइ संसारे” ॥ ३।१७ ॥
खरूं ज छे के मायादिदुर्गुणवाळो पुरुष स्त्री करतां जराय च्हडीयातो नथी ज्यारे सरलहृदया स्त्री पुरुष करतां से'ज पण उतरती नथी.
माणपं० प्र. 5
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