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________________ २८ नाणपंचमीकहाओ परंपराथी आ वातो चाली आवे छे तेने संक्षेपमा में कही छे एम विद्वान कथालेखक दरेक आख्यानना प्रान्त भागमा निरभिमानपणे कहे छे. परंतु आ "नाणपंचमी कहा"थी प्राचीन कोई ज्ञानपंचमीकथाविषयक ग्रन्थ आपणने उपलब्ध नथी तेथी आ दसेय आख्यानोनां मूळ क्या हशे ते शोधी काढवं मुश्केल छे. कनककुशळे, क्षमाकल्याणे, मेघविजय उपाध्याये जे ज्ञानपंचमीव्रतमाहात्म्यविषयक कथाओ अने बालावबोधो लख्यां छे ते बधा वरदत्त - गुणमंजरी कथाना नामे ओळखाय छे अने "नाणपंचमी कहा” तथा “वरदत्त गुणमंजरी कथा" बच्चे फळसाम्य होवा छतां पात्रभेद, स्थळभेद अने प्रसंगभेद जरूर छे. एटले के ए त्रणेय उत्तरकालीन लेग्वकोए महेश्वरसूरि रचित प्रस्तुत "नाणपंचमी कहा"मांथी कशुंय लीधुं नथी ए वात सुस्पष्ट छे. छतां "वरदत्त - गुणमंजरी" कथाना पण मूळ शोधयां हाल मुश्केल छे. अलबत्त ज्ञानपंचमी के श्रुतपंचमी उपर जेटला दिगंबर आचार्योए जे जे काई लत्यु छे ते बधार्नु मूळ प्रस्तुत कथाना भविष्यदत्त नामना दसमा आख्यानमां छे ए वात आपणे उपर जोई गया. आ दिगंबर आचार्यों पैकी धर्कटवंशीय वणिग धनपाळ, सिंहसेन अपरनाम रईधु, विबुध श्रीधर अने ब्रह्मचारी रायमल्ल खास नोंधने पात्र छे. प्रस्तुत "नाणपंचमी कहा"ना प्रत्येक आख्यानमां राजाओ, द्वीप-द्वीपांतरो, नगरीओ वगेरेनुं घणी ज आलंकारिक अने घणी वखत श्लेषात्मक भाषागां वर्णन करायेलु छे. धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, अने व्यावहारिक प्रसंगो सर्जी तमाम उपयोगी विषयो उपर अमूल्य सुभाषितो गोठव्यां छे. ते वखते समाजमा प्रचलित कहेवतोनो पण छूटथी उपयोग कर्यो छे. ग्रन्थ वांचता वेंत ज लेखकनी सर्वतोमुखी प्रतिभानो परिचय आपणने थया विना रहेतो नथी. काव्य, अलंकार, नीति, व्यवहार अने धर्म ए तमाम बाबतनो लेखकने तलस्पर्शी अभ्यास हतो. प्राकृत भाषा तरफनो एमनो सकारण स्नेह अने चतुर्विध संघनी महानुभावता विषेना तेमना विचारो रोचक अने सूचक छे. अने तेमना अनेकविध, अमूल्य, आह्लादजनक, कचित् हास्यजनक, अने अभ्यासपूर्ण, वेधक सुभाषितो विषे तो कहेवू ज शुं? जरा पण सांप्रदायिक व्यामोह विना मने नम्रपणे कहेबानुं मन थाय छे के आ "नाणपंचमी कहा"ना कोई पण अंश तरफ ध्यान नहि आपतां केवळ सुभाषित - अंश उपरथी ज एनुं निरपेक्षपणे मूल्यांकन करवानें कोई आपणने कहे तो पण आपणे असंदिग्धताथी कही शकीए के आ कथाग्रन्थ - रत्न अजोड अने अगर थवा सर्जायो छे. कणाद, कपिल अने कालिदासे, बाल्मीकि, व्यासे अने वात्स्यायने, सिद्धसेने अने समन्तभद्रे, हरिभद्रे अने हेमचंद्राचार्य सुभाषितोनो छुटे हाथे उपयोग को छे. ए बधाना सुभाषितोनो यत्किंचित् अभ्यास करवानुं मने सद्भाग्य पण मळ्युं छे. छतां मारे एटलं अहिंआ कहेवू जोईए के महेश्वरसूरिए "नाणपंचगी कहा"मां वापरेल सूक्तिओ सर्वदेशीय छे एना करतां ते विशेष मौलिक छे. लेखकनी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभानो जे दृढ अने अविस्मरणीय परिचय ए सुभाषितो द्वारा मने थयो अने ए परिचयथी मने जे अलौकिक आनंद थयो ते लगभग अवर्णनीय छे. “रसात्मकं काव्यं वाक्यम्" अने "रसो वै ब्रह्म" के श्री मुनशीजीनो वर्तमानयुगने बंधबेसतो "रसोल्लास" या " रसास्वाद" शब्द जरांय खोटां नथी. आम तो नीति, शोक्य, स्त्रीजाति, प्रेम - स्नेह, कन्या, मरण, मित्रता, बाळ - वैधव्य, दांपत्य, याचना, विश्वधर्म, प्रव्रज्या, प्रतिबोध, धर्म, समभाव, व्यवहार, आय, व्यय, धन, नियम, चित्तशुद्धि, अमात्य, सती स्त्री, रतिविद्या, दारिद्र्य, आशा, निराशा अने राजनीति इत्यादि इत्यादि विषयोनां अनेकानेक, मौलिक, तलस्पर्शी, अभ्याससूचक अने वेधक सुभाषितो वापरू छे जे दरेकने अहीं चर्चवानो जराय अवकाश नथी तेथी मात्र अमुकना अहीं नमूनाओ आपी संतोष पकडीश. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002786
Book TitleGyanpanchami Katha
Original Sutra AuthorMaheshwarsuri
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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