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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य [जैन प्राकृत वाङ्मयनी संक्षिप्त रूपरेखा] जैन ग्रन्थमालाना २५ मा मणितरीके, महेश्वरसुरिरचित 'नाणपंचमी कहाओ' (ज्ञानपञ्चमीकथाओ) नामनो जे आ विशिष्ट प्राकृत कथाग्रन्थ विद्वानोना करकमलमा उपस्थित थाय छे, ते प्राकृत भाषा भने जैन कथासाहित्य-बनेना अभ्यासनी दृष्टिए खास उपयोगी कही शकाय तेवो छे. श्रमण भगवान् श्रीमहावीरना निर्वाण कालथी लई, विक्रमना १८ मा सैकाना अन्त सुधीना, २३००-२४०० वर्ष जेटला व्यतीत थएला दीर्घ समय दरम्यान, जैन आचार्यों अने विद्वानोए प्राकृत भाषामा जे विपुल वाखाय निर्माण को छे, ते कालविभागनी दृष्टिये मुख्यपणे बे भागमा व्हेंची शकाय तेवू छे -- एक प्राचीन कालीन अने अन्य उत्तर कालीन. लगभग विक्रमना दशमा सैकाना अंत सुधीमां रचाएल साहित्यनी गणना प्राचीनकालीन विभागमा करवा जेवी छे, अने ते पछीना समयमा रचाएल साहित्यनी गणना उत्तरकालीन विभागमा करवा जेवी छे. २ जिनेश्वरीय 'कथाकोशप्रकरण'नी प्रस्तावनामां, में केटलाक विस्तार साथे, ए बताववानो प्रयन को छे, के जिनेश्वर सूरिना गुरु वर्द्धमानाचार्यना क्रियोद्धार समयथी, श्वेतांबर जैन संप्रदायना यति-मुनिवर्गमा एक नवीन युगनो-नूतन संगठननी प्रवृत्तिनो-प्रारंभ थयो हतो. ए प्रवृत्तिना केन्द्रस्थाने तो चैत्यवास विरुद्ध वसतिवास विषेनी विचारणा मुख्य हती, परंतु जेम जेम ए विचारणाए श्वेतांबर यति-मुनि वर्गमा व्यापक वाद-विवादन स्वरूप धारण करवा मांड्यं, तेम तेम संप्रदायना धार्मिक तेम ज सामाजिक एवा अनेक विधि-विधानो भने क्रिया-कर्मोना प्रश्नो पण तेमां उपस्थित थता गया. एना परिणामे संप्रदायमा परापूर्वथी चालता आवेला त्यागी वर्गना गण-गच्छोमा भने ते साथे गृहस्थ वर्गना ज्ञाति-कुलोमां पण, नवा-जूना विचारोनो संघर्ष थवा लाग्यो भने तेना लीधे समाजनी सामूहिक गतिनो प्रवाह एक जुदा-नवा ज मार्गे वळवा लाग्यो. ३ त्यागी वर्गमा उपस्थित थएला केटलाक क्रियाकाण्डविषयक विचार-भेदोना लीधे नवा नवा गणो-गच्छोनो प्रादुर्भाव थयो; अने ए गण-गच्छनायकोए पोत-पोताना गणनी प्रतिष्ठा तेम ज अनुयायिओनी संख्या वधारवानी इष्टिये, भिन्न भिन्न स्थळोमा सविशेष परिभ्रमण करवा मांड्युं. तेमणे पोताना उच्च चारित्र्य,उत्तम पाण्डित्य अने ज्योतिविद्यादि सम्बद्ध चमत्कारिक प्रभावदर्शक शक्तिसामर्थ्यना बळे, राज्याधिकारी वर्ग तेम ज धनिक वर्गने पोताना तरफ आकर्षी, स्थळे स्थळे पोताना पक्षनां चैत्यो, उपाश्रयो विगेरे धर्मस्थानोनी स्थापना करावा मांडी. भावुक बालवयस्क गृहस्थपुत्रोने, सांसारिक विटंबनाओना भयावह स्वरूपो उपदेशी, तेमनामां संसारथी विरक्त थवानी भावना जागृत करीने तेमने पोताना शिष्यो बनाववा मांड्या. आवीरीते वधती जती शिण्यसंख्याने, कार्यक्षम अने ज्ञानसमृद्ध बनाववा माटे, आगम, न्याय, साहित्य, व्याकरण आदि विषयोना विशिष्ट ज्ञाता विद्वानोनो संयोग अने सहकार मेळववानी तेमणे व्यवस्था करवा-कराववाना प्रयलो प्रारंभ्या. योग्य स्थानोमां, खास स्वाध्याय पीठो स्थापवामां आव्या, अने त्यां विशिष्ट विषयोना ज्ञाता अने योग्य उपाध्यायो नियुक्त करवामां आव्या. अध्यापको अने अध्ययनार्थियोने भावश्यक तेम ज उपयोगी एवा विविध विषयोना शास्त्रोना-संग्रहवाळा ज्ञानभंडारो स्थापित करवामां आव्या. ४जे समयने अनुलक्षीने आ विधान करवामां आवे छे ते समयमां- अर्थात् विक्रमना ११ मा अने १२ मा सैकामां, श्वेतांबर जैन संप्रदायमा, आ प्रकारनी नूतन जागृति अने प्रवृत्तिनो विशिष्ट वेग उत्पन्न थयो. प्रादेशिक विभागनी दृष्टिए जोतां, मुख्य करीने आ प्रवृत्तिना प्रचारकेन्द्रो गुजरातनां अणहिलपुर, खंभात अने भरूच, राजस्थानना भिन्नमाल, जाबालिपुर, नागपुर, अजयमेरु, चित्रकूट अने आघाटपुर; तेम ज मालवानां उजैन, ग्वालियर अने धारा आदि नगरो हता. ते समयमा गुजरातमा चालुक्यो, मालवामां परमारो अने राजस्थानमा गुहिलोतो तेम ज चाहमानो मुख्य राज्यकर्ताओ हता. ए राज्यकर्ताओनो जैन धर्म अने जैन समाज तरफ बहु ज सहानुभूति अने समादर भरेलो व्यवहार होवाथी, जैन त्यागियो अने जैन गृहस्थोने पोतपोताना व्यवहार अने व्यवसाय कार्यमां, प्रगति करवा माटे घणी सरलता अने सफलता मळवानी परिस्थिति निर्मित थई हती. ते समयनो जैन गृहस्थवर्ग देशना व्यापार अने कृषिकर्ममा जेम अग्रस्थान धरावतो हतो तेम राज्यकारभारमां पण बहु ज अग्रभाग भजवतो हतो. राज्यनां नानां मोटां दरेक अधिकारस्थानो पर जैनोनी विशिष्ट संख्या, अधिकारिरूपे सत्ता भोगवती हती. जैन वणिको राज्यना सर्वोच्चकक्षानां महामात्यनां पदो पण शोभावता अने राष्ट्रसंरक्षणनां महादंडनायकनां जेवां पदो पण दीपावता. जैन धर्मना दान अने दयाना उच्च उपदेशोए, ए क्षात्रवंशीय वणिकवर्गमा प्रजासुख अने प्राणिरक्षानी सारी भावना जागृत करेली हती अने तेथी जैन अधिकारियोना हाथे राज्यनी उन्नति अने प्रजानी प्रगति स्थिर. भावे संचालित थई शकती हती. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002786
Book TitleGyanpanchami Katha
Original Sutra AuthorMaheshwarsuri
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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