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________________ धर्मोपदेशमालायाम __ तओ दवावितो आघोसणा-पवयं महादाग, अणेग-देव-दाणव-सिद्ध-गंधव-वेजाहराइपरिवुडो सविसाय-जायन-पुरलोगेहि य अणुगम्ममाणो संपतो मुहडं पिर वणराइमणहरं विसाल-वच्छंच, तियसणाहं पिच सगयं जय-पायर्ड द, महुमहं पिव तमाल-दलसामलं सिरि-समद्धासियं च, जलहिं पित्र रयण-सारं विबुह-सेवियं च, जिणिदागर 5 पिव पय-गम-कलियं महाइसयं च उजेंत-पवयं । जो य, कत्थ य मत्त-मायंग-करणियर-भजंत-सरस-चंदणवणाणम्महंत-सुरहि-परिमलामोय-वासिय-दिसा-मंडलो, कत्थ य भासुर-मुह-विवर-पयडिय-दाढा-कराल-केसरि-खर-पाहर-कोडि-निदलिजंत-मत्त-मायंग कुंभत्थलाणित-मुत्ताहल-णियर-धवलिय-महियलो, कत्थ य पथ )क-महावराह-दाढाकोडि-नियरुम्मूलेजमाण-महिवेढुच्छलिय-भद्दमुत्था-महापब्भारालंकिओ, कहिं पि मन" करिणाह-गंडयलासत्त-कन्न-चवेडुड्डाविय-भमिर-भमर-झंकार-हलबोलिजंत-दियंतरो, कहिं पि किलिकेलेत-जूहाहिवाहिट्ठिय-चाणर-णियर-विलुप्पंत-सिरिफलोवरहिरो, कत्थ य जहिच्छ-पसरंत-वणचरेहिं बहल केकारवारेजमाण-गुहा-दिवरंतरो, कत्थ य रहसोवयंत-तियस-कामिणि-धम्मेल्लुवेल्ल-णिवडंत-मंदार-कुसुम-नियर-भूसिजमाण-णियंव-त्थलो, कत्थइ किन्नर-मिहुणय-समारद्ध-गेय-सद्दायण्णण-गणेञ्चल-ट्ठिय-इरिण-उलो, कत्थ य 15 कमल-कुवलय-णीलुप्पल-सयवत्त-सहस्सपत्तोवसोहिय-महासरवर-मंडिओ । जो य, माणदंडो विव गयणंगणस्स, चूडामणी चिव महि-सीमंतिणीए, कनावधंसी विच दाहिण-दिसावयाए, केस-कलाओ विव जयलच्छीए, रयण-रसणा-बंधो विव रईए, रमणुजाणं पिव उउ-सिरीए त्ति । अवि य -- पुण्णाग-णाग-चंपय-हिंताल-तमाल-ताल-सोहिल्लो! णंदणवण-संकासो उजेतो सहइ मेरु व ॥ तत्थ य समारूढो चउबिह-देव-णिकाय-परिवड-वीससुराहिव-परिवारो जिणो । तओ समाहयाई आभिओगिएहिं देवतूराहिं(ई), आवरिया असंख-संखा, समाहयाओ देवदुंदुहीओ । पणच्चियाओ देवसुंदरीओ । जय-जयावियं तिरसेहिं ति । अवि य-- अवणद्ध-सुसिर-घण-तय-चउबिहाउज-बज-सहहिं । कण्ण-पडियं ण मुबइ वयणं रोरस्य व पहहिं ।। तओ विमुकाणि तित्थयरेणाहरण-वत्थाईणि, पद्धिच्छियाणि हरिणा । सगुवणीर्य तित्थयर-लिंगं देवदुगुल्लं उत्तरासंगीकयं जिणेणं ति । 'सव्वे वि एगदसेण शेरगया जिणवरा चउब्धीसं। UT Tणाम अन्न- लिंगे नो गिहिलिगे कुलिंगी।' 1 को सयमेव पंच-मुट्टिओ लोओ। एत्थंतरम्मि सक-वयणाओ समुवसंतो कलयलो ! कयं सामाइयं ति । अवि य काऊण नमोकार सिद्धाण अभिग्गह तु सो लेइ । सर्व मि अकरि(र)णेशं पावं ति चरित्तमारूढः॥ १ह. ज. °स्थलेणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002785
Book TitleDharmopadeshmala Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages296
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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