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________________ चतुर्थ संधि कार्दु जेथी पद्म श्रीन आळ उतरे-आम ते क्षेत्रपाळ मनथी विचारवा लाग्यो. चित्रेलो मोर मारो सुंदर हार गळीने केम काढे ते एक आश्चर्य छे (?). कां ति म ती परिजनो साथे सुंदर चित्रकर्म जोती हती त्यां एकाएक चित्रनो मोर उड्यो अने भवनना आंगणामां मनहर नृत्य करवा लाग्यो, कलनिनाद साथे केकारव करवा लाग्यो. लोको कौतुकथी जोवा आव्या. तेनो कलापभार घणो ऊंचो हतो (?). तेणे आखोये हार ओकी काढयो. (पछी) तरत ज ऊडीने भीतमा लागी गयो. विस्मित थयेला लोको बोलवा लाग्या, “निर्मळ चारित्र्यवाली ने गुणाढ्य , लोभ , मोह ने मद रहित एवी ते आर्या पर साची वस्तुथी अज्ञान एवा आपणे आळ चडाव्यु." कडवक १३ पद्म श्री नो केवळ महिमा उजववा भक्तिथी देवो केवी रीते आव्या ते सांभळो. तरत जे खडना डाभोळियां काढी नखायां. भूमिने चंदनजळे छांटी. बधी इंद्रियोने संतुष्ट करे तेवी उत्कट सुवास वाळा कुसुमोनी वृष्टि करी. जेना पांदडांनो समूह अतिशय विस्तयों छे तेवा उत्तम मलयचंदननु निर्माण करवामां आव्यु. चार गतिवाळा संसारसमुद्रने तरी गयेली भगवती पद्मश्री त्यां बेठी. गर्जता महोदधिना मोटा नाद जेवो......स्थिर सिंहनाद करवामां आव्यो. विद्याधरीओ वीणा वगाडवा लागी. किन्नरीओ सुंदर गीत गावा लागी. रस, हाव ने भावथी मनरंजन करती देवांगनाओ मनहर नृत्य करवा लागी. असंख्य विद्याधर, देव, गंधर्व ने यक्ष 'जय जय' (कहेतां) भगवतीनी स्तुति करवा लाग्या. निःशेष वस्तुविस्तारनुं ज्ञान आपे तेवू ज्ञान आर्याने उत्पन्न थयेलुं दीढुं. देवोए महिमा उजव्यो. समाचार बधे फेलाया. कांतिम ती, की ति म ती, तेमना पति, नगरजनो, प्रतापी विजय राजा, (तेनु) अंतःपुर-(सौ) वंदन करवा आव्यु. भगवतीने भावथी वंदन करी, हर्षथी विकसित मुखकमळवाळो श्री वि ज य राजा, अंतःपुर ने सकळ नगरजनो वांदवा लाग्या. कड व क १४ "भगवतीनो जय-(जेने) निर्मळ गुणोना निधानरूप अनुपम दिव्य ज्ञान उत्पन्न थयु छे. जेमणे बधाये दोषोनो नाश कर्यो छे एवा भगवतीनो जय. जेमणे शिवपुरीमा सदाने माटे निवास कयों छे तेवा (भगवतीनो) जय.” (आ प्रमाणे) स्तुति करीने, जेमनो हर्ष वध्यो छे तेवो राजा तेम ज नगरजनो भोंय पर बेठा. पद्मश्री धर्मदेशना करवा लागी, "मिथ्यात्व कषायथी विमूढ बनेला चित्तवाळो जीव संसारमा भटके छे तेथी ते भातभातर्नु अष्टविध कर्म बांधे छे. जे माणस बहु पापी प्रवृत्तिओ आदरे छे, शास्त्रविरुद्ध आचरणवाळो छे, क्रूर हृदयनो छे, पंचेन्द्रिय जीवोनी हत्या करे छे, मांस खाय छे, पापकर्म करे छे, ते नरके जाय छे, (अने) कपाईं, हाथमस्तकनु छेदावू (वगेरे) भातभातनी वेदनाओ भोगवे छे. तिथंच योनिमां पण खूब भारथी लदायू, बंधन, दहन, अंकावू, मार, भूख, तरस, (वगैरे) घणांय दुःख छे, (अने) परवश (जीवने) दारुण क्लेश सहन करवो पडे छे. मनुष्य योनिमां पण धनहरण, शोक, जरा, खांसी, दम, प्रियविरह (वगेरे दुःखो होय छे). अने देवोमां पण इंद्र वगेरे देवोना किंकरोने सुखनो जरा छांटो ज होय छे. कर्मशृंखलामां जकडायेला, चतुर्गति संसारमा भमता ने जन्ममरणथी संताप पामता जीवने एक पळ पण सुख नथी. • कड व क १५ हे भव्यो, आ हितोपदेश छे : जैन धर्ममां सदाय उद्यत रहो. जीवने हणो नहीं. साचुं बोलो. परधन ने परस्त्रीने परिहरो. आरंभ अने परिग्रहने मर्यादित करो. रात्रिभोजन अने मध तेम ज मानो त्याग करो. सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन ने चारित्र्य ए संसाररूपी महोदधिनी नौका छे. जिन पर मन स्थिर करीने ध्यान धरो-जेथी शाश्वत परम स्थान पामो," भगवतीने नमस्कार करीने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002783
Book TitlePaumsiri Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhahil Kavi, Jinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1948
Total Pages124
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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