________________
१२८
प्राचीन गुजराती गद्यमय जीवती दीठी । तउ आज पुत्रीनई नवउ जन्म हूओ।" तेह भणी महामहोत्सव करिवा लागा । जैनप्रासादि पूजापूर्वक साधर्मिक वात्सल्यादिक कीधा । केतलाएक दिन साधर्मि जिनदास तिहां रही वीरदासनई पूछी भरूवछ आविउ । - इसइ एकदा आर्य सुहस्तिसूरि दशपूर्वधर विहार करता नर्मदापुरि आव्या । तिवारई नमयासुंदरी मा-बाप पीतरिआ सहित आचार्य समीपि आवी प्रणाम करी आगलि बइठी । तेतल[इ ] श्री सुहस्तिसूरी धर्मलाभ कही धर्मोपदेश दीधउ । तिवार पछई देशनानई अंति वीरदास गुरुनई प्रणमीनई पूछिवा लागउ "खामिन् ! नर्मदासुंदरी भवांतरि कउण कर्म उपार्जिङ जे निर्दोषइ सुसीलथकी एवडां कष्ट पाम्या ?" तिवारई भगवंत श्रुतनउ उपयोग देई पूर्वभव कहिवा लागा- "इणइं पृथ्वीपीठि वंध्यगिरि । तेहमांहि थकी नर्मदा नीकली छइ । तेहनी अधिष्ठायिका मिथ्यात्वनी देवताई एकदा महातमा एक धर्मरुचि प्रतिमाई रहिउ देखी घणा उपसर्ग कीधा । तउ ही धर्मरुचि महातमा ध्यान हूंतउ न चूकइ । तिसइ देवताए महातमानी क्षमा देखी प्रतिबूझीहंती सम्यक्त्ववंति हुई । हिव ते मरी तुम्हारी पुत्री नर्मदा हुइ । अनई पूर्विला अभ्यासलगी नर्मदास्ना[न] नउ डोहलउ ऊपनउ । वली जे महातमानइं उपसर्ग कीधा तेह भणी दुविखणी हुई।" ए वात सांभली नर्मदाई दीक्षा लीधी । तिसइ जातीस्मरण ऊपनउं । पछई चारित्र पालतां वली अवधिज्ञान ऊपनउं ।
पछइं पवतिणिपद पामी रूपचंदपुरि आवी । पणि तप लगी कालक्रमई कृशदेह हुई छइ । पणि तिहां कुणही ऊलखी नहीं । पछई ते नर्मदासुंदरी पर्व(व)तिणि महासतीने वृंदे परिवरी रुषिदत्तानई घरि आवी धर्मलाभ कहिउ । तिसइ रुषिदत्ताइं उपाश्रय दीधउं । तिहां महासती रही । हिव धर्मनउ उपदेस महासती सदा दिई अनई महेसरदत्त रुषिदत्तातउ उपदेस सांभलइ । पणि कोई महासतीनई ऊलखइ नहीं । इम अन्यदा संवेगरंग ऊपाइवा भणी महेसरदत्तनइं खरलक्षण जणाविउ । ते खरलक्षणोपदेस सांभली ते नर्मदासुंदरी चीति आवी । पछइं पश्चात्ताप करिवा लागउ “धिग् धिक्कार मझनइं, जे मई एहवीइ सती वनमांहि मूंकी; तर ते नमयाना कुण हाल होस्यई ।" इम आपहणी शोक करतउ देखी दया लगई महासती कहइ "ते हूं नमयासुंदरी जे तुझ आगलि बइठी छउं ।" तिवारइं महेसरदत्त चीतवइ “ए किसउं आश्चर्य । जोउ सघलइ कर्म जि प्रधान सबल जिम नचावइ तिम नाचीयइ । इहां किहनउ दोस नहीं ।" पछइं ऊठी महासतीने पगे लागी, आपणउ अपराध खमावी करी, वैराग्यरंगपूरित हूंतउ श्री सुहस्तिन् आचार्य समीपि जई व्रत लीधउं । अनइं रुषिदत्ताई पणि चारित्र लीधउं । पछइं बेहूं तप तपी चारित्र पाली स्वर्गनई भाजन हुआ। अनई नमयासुंदरी पणि प्रांतसमउ जाणी संलेखनापूर्वक अणसण पाली देवलोकि पुहुती । पछई वली महाविदेहि क्षेत्रि ऊपजी दीक्षा लेई मोक्षि पहुचिस्पइ ॥ श्री ॥ ॥ इति श्री शीलोपदेशमाला बालावबोधस्य वा० श्री. मेरुसुंदर०
शीलोपरि नमयासुंदरीकथा ॥ श्री॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org