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'सप्त शाखा द्वारों' का सूत्रपात इसी समय से हुआ। ऐसे द्वारों के तोरण पर सात पट्टिकाएँ होती हैं, जिनपर क्रमशः नाग, रूप, व्याल ( शार्दूल), मिथुन, नवग्रह, दिक्पाल और कमल - कलश (नीचे-ऊपर) के अंकन किये जाते थे। ऐसे द्वार नौहटा (दमोह), बिनेका (सागर), पाली, त्रिपुरी, अमरकण्टक, सोहागपुर, सिंहपुर (शहडोल), रतनपुर ( विलासपुर), जांजगीर, खरोद ( विलासपुर) और शिवरीनारायण (विलासपुर ) आदि में दर्शनीय हैं।
इस शैली में शिखर की ऊँचाई बहुत होती गयी । सोहागपुर में शिखर ऊपर की ओर अपेक्षाकृत अधिक पतला होता गया है। वैष्णव, शैव और जैन मन्दिरों की निर्माण-विधि में कोई अन्तर नहीं होता था और सिंहपुर (शहडोल), ग्यारसपुर, दूधई, चाँदपुर, सेरोन, कारीतलाई, बिलहरी, पठारी (विदिशा), ऊन ( बड़वानी), बड़गाँव, खजुराहो आदि स्थानों पर उक्त तीनों सम्प्रदायों के मन्दिर पास-पास और एक ही प्रकार के हैं।
इस शैली की सबसे बड़ी देन है, 'पंचायतन' शैली का प्रारम्भ । मण्डप तो गुर्जर-प्रतिहारों के समय से ही बनता आया था, इस समय अर्धमण्डप और बनाया जाने लगा जिससे मन्दिर के पाँच भागों (आयतनों) की पूर्ति हो गयी ।
(3) चन्देल शैली
चन्देल काल में पंचायतन - मन्दिरों का पर्याप्त विकास हुआ। शिखर शैली भी इस काल में अपने उत्कृष्ट रूप को प्राप्त हुई । अलंकरणों के अन्तर्गत मूर्तियों का बाहुल्य उल्लेखनीय है । कलचुरि काल की भाँति इस काल में भी वैष्णव, शैव और जैन मन्दिर एक-दूसरे के समान और पास-पास निर्मित हुए । धर्म पर कौल - कापालिकों का प्रभाव बढ़ा । अतः रति-चित्रों का आधिक्य, अप्सराओं का विविध मुद्राओं में आलेखन और युग्म - छवियों के अंकन में वृद्धि हुई ।
इसके विपरीत कलचुरि शासकों के समय मत्तमयूर शाखा के साधुओं का प्रभाव बढ़ा, जो नैतिक पक्ष पर अधिक बल देते थे । इसीलिए उस समय ऐसी मूर्तियाँ अधिक नहीं बनीं । कौल - कापालिक आदि वाममार्गी शैव साधुओं के लिए मठों का निर्माण मन्दिरों के समीप ही होता था । गुर्गी, चन्द्रेह आदि में प्राप्त मठों के कई तल ( मंजिल ) हैं । इन साधुओं का जीवन आनन्दपरक रहा है ।
सम्भवतः इनका प्रभाव जैन साधुओं पर भी पड़ा होगा । ये साधु मन्त्र तन्त्र आदि पर अधिक विश्वास रखते थे, इसीलिए इनके प्रभाव में आनेवाले कलचुरि और
1. पंचायतन शैली का अन्य रूप भी है, जिसमें अधिष्ठान पर मुख्य मन्दिर के अतिरिक्त चारों कोनों पर एक-एक लघु मन्दिर की योजना होती है।
2. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : चन्देल और उनकी देन मध्यप्रदेश सन्देश, 1 अगस्त 62, पृ. 261
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स्थापत्य :: 97
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