SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शासनकाल तक भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की एक अविच्छिन्न धारा प्राप्त होती है। यहाँ बेतवा के तट पर उत्खनन में प्रागैतिहासिक काल के अस्त्र प्राप्त हुए हैं तथा राजघाटी की कतिपय गुफाओं में आदिमानव द्वारा निर्मित प्रागितिहास काल के चित्र मिलते हैं। यहाँ के एक अभिलेख में मौर्यकालीन ब्राह्मी का भी प्रयोग हुआ है। गुप्त युग में तो यहाँ अनेक विशिष्ट मन्दिरों एवं मूर्तियों का निर्माण हुआ। गुर्जर-प्रतिहारों के शासन में यहाँ की कला और स्थापत्य को पर्याप्त समृद्धि प्राप्त हुई। यहाँ उपलब्ध एक अभिलेख गुर्जर के प्रतिहारवंशी शासक भोज के समय तथा राज्य सीमा को स्पष्ट शब्दों में उद्घोषित करता है। चन्देलवंशीय शासक कीर्तिवर्मन् के समय से वर्तमान देवगढ़ का नाम लुअच्छगिरि से कीर्तिगिरि रखा गया तथा उसके मन्त्री वत्सराज ने यहाँ एक नवीन गिरिदुर्ग का निर्माण भी कराया। उसके पश्चात् भी सांस्कृतिक समृद्धि की एक अविच्छिन्न धारा यहाँ प्रवाहित होती है। देवगढ़ में विद्यमान इकतीस मन्दिरों, नौ लघु मन्दिरों एवं उन्नीस स्तम्भों (मानस्तम्भों) की परिपूर्ण पैमाइश प्रथम बार इस अध्ययन में की गयी है। देवगढ़ दुर्ग तथा वहाँ की प्राचीन घाटियाँ, नाहरघाटी और राजघाटी, सिद्ध की गुफा, वराह एवं दशावतार मन्दिरों तथा सती स्तम्भों का भी इस प्रबन्ध में विवेचन किया गया मन्दिर-वास्तु की दृष्टि से देवगढ़ के मन्दिरों में शास्त्रीय विधान का पूर्ण निर्वाह न होने पर भी सर्वतोभद्र, पूर्णभद्र, षोडशभद्र, पंचायतन आदि शैलियों का परिपूर्ण निदर्शन उपलब्ध होता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि प्राचीन काल से गुर्जर-प्रतिहारकाल तक मन्दिर-वास्तु का जो विकास हुआ, उसका स्पष्ट प्रभाव यहाँ के मन्दिर-वास्तु में परिलक्षित होता है। देवगढ़ की जैन कला में तीर्थंकरों, देव-देवियों, विद्याधरों, साधु-साध्वियों तथा उपासकों की मूर्तियाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में यहाँ की मूर्तियों का योगदान अद्वितीय है। देवगढ़ में उपलब्ध दो इंच से लेकर तेरह फुट तक की विशालकाय तीर्थंकर मूर्तियों के अतिरिक्त नामोत्कीर्ण चौबीस यक्षियों, विद्यादेवियों, विद्याधरों, साधु-साध्वियों एवं उपासकों की मूर्तियों के निदर्शन भारतीय कला में अत्यन्त विरल हैं। देवगढ़ की जैन कला में निदर्शित युग्मों और मण्डलियों, विभिन्न प्रकार के प्रतीकों, पशुओं और विभिन्न जीव-जन्तुओं, आसन एवं मुद्राओं तथा प्राकृतिक परिवेश के शिल्पांकन भारतीय कला में अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। देवगढ़ की कला और स्थापत्य में वहाँ के सांस्कृतिक जीवन का इतिहास मुखरित होता है। समाज के विभिन्न वर्ग, चतुर्विध संघ, साधु सम्प्रदाय, भट्टारक, गृहस्थ-श्रावक, सामाजिक जीवन के विभिन्न अंग, शिक्षा और साहित्य, लिपि एवं 268 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy