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________________ 9 उपसंहार प्रस्तुत शोधकार्य की उपलब्धियाँ प्रस्तुत प्रबन्ध के पिछले अध्यायों में देवगढ़ के जैन स्थापत्य, मूर्तिकला एवं सांस्कृतिक जीवन का समग्र अध्ययन प्रथम बार प्रस्तुत किया गया है। सर अलेक्जेण्डर कनिंघम ने भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के सन्दर्भ में सन् 1874 ई. में देवगढ़ का भी आंशिक सर्वेक्षण किया था। उसके पश्चात् भी यहाँ की कला के सर्वेक्षण-अध्ययन के शासकीय तथा सामाजिक प्रयत्न होते रहे, किन्तु समग्र अध्ययन की दृष्टि से इस प्रबन्ध के पूर्व अन्य कोई प्रयत्न नहीं हुआ। देवगढ़ में प्राप्त अभिलेखों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि 'देवगढ़' यह इस स्थान का प्राचीन नाम नहीं है। इस स्थान का प्राचीन नाम 'लुअच्छगिरि' था। इस नाम का उल्लेख यहाँ के जैन मन्दिर संख्या बारह के अर्धमण्डप के दक्षिण-पूर्वी स्तम्भ पर उत्कीर्ण विक्रम संवत् 919 के अभिलेख में प्राप्त होता है। इसके पश्चात् ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त में इस स्थान का नाम 'कीर्तिगिरि' प्रचलित हुआ। इस नाम का उल्लेख यहाँ की राजघाटी में चन्देलवंशी शासक कीर्तिवर्मा के मन्त्री वत्सराज द्वारा उत्कीर्ण कराये गये विक्रम संवत् 1154 के अभिलेख में उपलब्ध होता है। इस स्थान का 'देवगढ़' नामकरण बारहवीं शताब्दी के अन्त अथवा तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ प्रतीत होता है। चौदहवीं शताब्दी के एक अभिलेख में इस नाम का संकेत मिलता है। इस नाम के प्रचलन का प्रमुख कारण, यहाँ असंख्य देव-मर्तियों तथा देवायतनों की उपलब्धि के साथ ही साथ एक विशिष्ट मर्ति-निर्माण केन्द्र के रूप में इसकी प्रसिद्धि भी है। ऐसा एक भी साक्ष्य प्राप्त नहीं होता, जिसके आधार पर इस स्थान के नाम को किसी राजा, महाराजा और आचार्य के नाम के साथ जोड़ा जा सके। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देवगढ़ के अध्ययन की उपलब्धियाँ अनेक दृष्टियों से विशिष्ट हैं। यहाँ प्रागैतिहासिक काल से लेकर मुगल, मराठा एवं अँगरेजों के उपसंहार :: 267 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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