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________________ जहाँ तक भाषा और साहित्य का प्रश्न है, देवगढ़ के पण्डित और आचार्य प्रकाण्ड विद्वान् थे। काव्यरचना में वे कितने कुशल थे, इसका प्रमाण उनके द्वारा लिखित स्तुतिकाव्यों और अभिलेखीय काव्यों में प्राप्त होता है। एक अभिलेख का प्रारम्भ करता हुआ काव्यकार प्राणिमात्र को मित्र की संज्ञा देकर उद्बोधित करता है, “अहो मित्र ! आत्महित का आश्रय ग्रहण कर, मोहरूपी वन को त्याग, कर्तव्य और अकर्तव्य को समझ, वैराग्य धारण कर, शरीर और आत्मा में सुनिश्चित अन्तर का चिन्तन कर तथा धर्मध्यानरूपी अमृत के समुद्र में गहरा गोता लगाकर अनन्त सुखरूपी स्वरूप से सम्पन्न कमलवदना मुक्ति का संगम कर।"3 _ विरोधाभास और मुद्रा अलंकारों का समन्वित प्रयोग करता हुआ कोई कवि जिनेन्द्रदेव की स्तुति करता है, “जो अपनी वामा (पत्नी) माया के साथ रहते हैं, फिर भी अमाय (मायारहित) हैं। साथ ही अत्यन्त असुन्दर माया (छल) और आमय (रोग) से रहित हैं, सुन्दर हैं, शोभमान लक्ष्मणों (लक्षणों) से सम्पन्न हैं, पूजा के योग्य हैं, सीतापति रामचन्द्र और सुग्रीव द्वारा जिनका महान् सम्मान हुआ है और जो एकमात्र शिरोधार्य हैं, जो शल्य के साथ दुश्शासन का भी नाश करनेवाले हैं, साथ ही शल्यसहित (कष्टप्रद) दुश्शासन (दूषितशासन) का नाश करनेवाले हैं, जो सहदेव द्वारा पूज्य अजातशत्रु (युधिष्टिर) हैं, साथ ही देवों के द्वारा उपास्य और शत्रुरहित है,....ऐसे मृगांक (मृगलांछनवाले) शान्तिनाथ की वन्दना करता हूँ।"4 इसी प्रकार विभिन्न अर्था- लंकारों और शब्दालंकारों का प्रशंसनीय प्रयोग स्थान-स्थान पर देखा जा सकता है। 6. आर्थिक स्थिति : अधिकांश अभिलेखों में मूर्तियों और मन्दिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार आदि के हेतु दान करनेवाले श्रावक-श्राविकाओं के उल्लेख मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि देवगढ़ का प्राचीन समाज इतना सम्पन्न था कि वह जीवन सम्बन्धी भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करके भी पर्याप्त दान कर सकता था। 1. दे.-परि. एक, अभि. क्र. 42-44 । 2. दे.-परि. दो, अभि. क्र. चार, पाँच। 3. दे.-परि. दो अभिलेख क्र. पाँच का पद्य प्रथम “आत्मार्थ अय मुंच मोहगगनं मित्रं विवेक गुरु। वैराग्यं भज भावयस्व नियतं भेदं शरीरात्मनः । धर्मध्यानसुधासमुद्रकुहरे कृत्वाऽवगाहं परम् । पश्यानन्त-सुख-स्वभावकलितं मुक्तिं मुखाम्भोरुहम्।” 4. दे.-परि. दो, अभिलेख क्र. चार के पद्य पाँच और छह स्ववाममायामयमप्यमायं, वामं लसल्लक्ष्मणमर्हणाहम्। सीतेश-सुग्रीव-महाहणार्ह, वन्दे सहर्ष सहसैकशीर्षम् ॥5॥ सशल्यदःशासननाशहेतुमजातशत्रु सहदेववर्यम्। वन्दे विशालार्जुन सद्य... नन्दत्सतां कर्ण कुलं मृगाङ्कम् ॥6॥ अभिलेख :: 265 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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