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________________ शिक्षा देनेवाले प्रायः उपाध्याय परमेष्ठी ही होते थे। उनके हाथ में ग्रन्थ और सामने एक टूटदार मेज होती थी। वे सैद्धान्तिक पक्ष को भी व्यावहारिक पक्ष की भाँति सरलता से समझा लेते थे। इसके लिए वे तीन लोक आदि के मानचित्र आदि का प्रयोग करते थे। विषय शिक्षा के विषयों में अध्यात्म, धर्म, साहित्य और योगशास्त्र आदि के अतिरिक्त नृत्य, गीत, भवन-निर्माण और मूर्ति-निर्माण आदि कलाएँ भी सम्मिलित थीं। उपकरण शिक्षा के उपकरणों में वह मेज विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो आधुनिक टूटदार 'टेबल' से बहुत अधिक मिलती-जुलती है। उसपर यदा-कदा आज की ही भाँति वस्त्र (टेबल क्लाथ) भी बिछाया जाता था। व्यावहारिक ज्ञान के लिए मानचित्रों और वाद्यों का प्रयोग होता था। शिक्षालय पाठशालाएँ मन्दिरों, मठों और दानशालाओं आदि में लगती होंगी, परन्तु कुछ पाठशालाएँ वृक्षों के नीचे भी लगती थीं। प्रकृति की निश्छल गोद में अध्ययनरत छात्र और अध्यापन में मग्न आचार्य के अंकन गुरुकुल-पद्धति का सुखद स्मरण कराते हैं। गुरु-शिष्य सम्बन्ध गुरु और शिष्य के सम्बन्ध मधुरता और वात्सल्य से पूर्ण होते थे किन्तु एक स्थान पर दो साधु अपने गुरु के समक्ष, न जाने क्यों, अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे थे।" प्राचीन भारत में तक्षशिला, काशी, वलभी आदि स्थानों में शिक्षा के इतने बड़े 1. दे..-म. सं. 4 आदि में उत्कीर्ण विभिन्न पाठशाला दृश्य चित्र सं. 77, 77-89 एवं 35 आदि। 2. दे. ---मं. सं. 15 में स्थित तीन लोक का मानचित्र। 3. दे. -मं. सं. चार के गर्भगृह में पश्चिमी भित्ति में जड़ी हुई मर्ति । 4. दे.-चित्र सं. 57, 118 आदि। 5. दे. -मं. सं. एक के पृष्ठ भाग में जड़ी हुई आचार्य मूर्ति । 6. द्रष्टव्य-मं. सं. एक का पृष्ट भाग, चित्र सं. 77 । 240 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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