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________________ 4. शिक्षा प्राचीन भारत में ऐहिक चिन्तन की अपेक्षा तत्त्वज्ञान तथा पारलौकिक चिन्तन की ओर अधिक प्रवृत्ति थी । वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रमों की व्यवस्था पर प्राचीन ऋषि-मुनियों ने यह प्रयत्न किया था कि जीवन का अधिकांश उच्च तत्त्वज्ञान के चिन्तन में व्यतीत हो । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सांसारिक कोलाहल से दूर प्रकृति के क्रीडास्थल वन-उपवन चुने गये। इन स्थानों पर ऋषि-मुनियों के आश्रमों की स्थापना हुई, जो शिक्षा तथा धर्म के केन्द्र बने ।' आश्रमों की स्थापना वन-उपवनों के अतिरिक्त नदियों के किनारे और नगरों के निकट भी होने लगी थी । ये तपोवन या आश्रम धीरे-धीरे शिक्षा के केन्द्र बने । वैदिक आश्रमों के अनुरूप जैनों ने भी अपने विहार, मठ और मन्दिर बनवाये, जिनमें उन्होंने अपने धर्मों की शिक्षा की व्यवस्था की 12 शिक्षक : शिक्षार्थी देवगढ़ में शिक्षा का प्रचार बहुत अधिक था । शिक्षा का कार्य प्रायः साधुवर्ग द्वारा सम्पन्न होता था । उनकी कुछ कक्षाओं में केवल साधु, कुछ में साधु और साध्वियां तथा कुछ में साधु-साध्वियों के साथ श्रावक-श्राविकाएँ भी सम्मिलित होती थीं। अल्पायु के बालक तो शिक्षा पाते ही थे, वयोवृद्ध ब्रह्मचारी और पण्डित भी कक्षाओं में सम्मिलित होते थे। छात्राओं को शिक्षा देने का कार्य विदुषी महिलाओं द्वारा सम्पन्न होता था। प्राचीन भारत में उन्हें 'उपाध्यायिनी' और 'उपाध्याया' कहा जाता था । देवगढ़ के शिक्षार्थी ब्रह्मचारी पुस्तकें रखने के लिए 'बस्ता' का प्रयोग करते थे, जिसे वे कन्धे पर टाँगकर लाते और ले जाते थे । ' डूंगरपुर (राजस्थान) के संग्रह में हैं। " डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल तीन ऐतिहासिक भट्टारक पट्टावलियाँ सन्मति सन्देश, वर्ष 7 अंक 3 ( मार्च, 1962 ई.), पृ. 271 1. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी प्राचीन भारत के शिक्षा केन्द्र : विक्रम स्मृति ग्रन्थ संवत् 2001 : ( ग्वालियर, अप्रैल, 1944 ई.), पृ. 727। 2. प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी प्राचीन भारत के तपोवन नागरी प्रचारिणी पत्रिका (काशी, वि.सं. 2005), वर्ष 53, अंक 3-4, पृ. 2361 3. दे. - विभिन्न पाठशाला दृश्य तथा चित्र सं. 77-82 एवं 85 1 4. दे. - जैन धर्मशाला स्थित चैत्यालय में उपाध्याय परमेष्ठी की मूर्ति का अभिलेख (परि. दो, अभि. क्र. तीन) । 1 5. प्रो.कृ.द. बाजपेयी प्रा.भा. के शि.के. वि. स्मृ. ग्रं., पृ. 729। 6. दे. मं. सं. 19 के अर्धमण्डप के सामने पड़े किसी द्वार के अवशेष, मं. सं. एक के मण्डप में जड़ी (चित्र सं. 80) आचाय मूर्ति तथा जैन चहारदीवारी । Jain Education International For Private & Personal Use Only सामाजिक जीवन : 239 www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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